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________________ १५० महाबंधे पदेसबंधाहियारे पंचिंदियदंडओ समचदुदंडी तित्थ० ओघं । णवरि पंचिंदियदंडओ अणु० उ० तेवटिसागरोवमसदं । मणुसगदिपंचग० अणु० ज० ए०, उ० तेत्तीसं सागरो० । २४३. णqसगे पढमदंडओ विदियदंडओ तिरिक्ख०३ तिरिक्खोघं । पुरिसदंडओ सत्तमभंगो । देवगदि०४ अणु० ज० ए०, उ० पुचकोडी दे० । पंचिं०-ओरा०अंगो.. पर०-उस्सा०-तस०४ उक्कस्सं ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० दोहि अंतोमुत्तेहि सादि० । ओरा०अंगो० एगमुहुत्तेहि सादि० । तित्थ० अणु० ज० ए०, उ० तिण्णिसाग० सादि० । देवगतिचतुष्क, पञ्चेन्द्रियजातिदण्डक समचतुरस्रसंस्थानदण्डक और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पश्चेन्द्रियजातिदण्डकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल एक सौ त्रेसठ सागर है। मनुष्यगतिपञ्चकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। विशेषार्थ-यहाँ पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डकके कालमें स्त्रीवेदी जीवोंकी अपेक्षा जो विशेषता है, उसका निर्देश मूलमें किया ही है। तात्पर्य यह है कि पुरुषवेदकी उत्कृष्ट कायस्थिति सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है और पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण जानना चाहिए। सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंमें जैसा बतलाया है वह यहाँ भी वैसा ही है। कारण स्पष्ट है। पुरुषवेदका निरन्तर बन्ध ओघमें दो पूर्वकोटि अधिक दो छयासठ सागर बतला आये हैं,वह पुरुषवेदी जीवोंमें अविकल घटित हो जाता है, इसलिए यहाँ भी इसके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त काल प्रमाण कहा है। देवगति चतुष्क, पञ्चन्द्रियजातिदण्डक, समचतुरस्त्रसंस्थानदण्डक और तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है, यह स्पष्ट ही है। मात्र पञ्चेन्द्रियजातिदण्डकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल ओघसे जो एक सौ पचासी सागर कहा है उसमेंसे बाईस सागर कम हो जाता है, क्योंकि छठे नरकके बाईस सागर इसमेंसे न्यून हो जाते है। अतः यहाँ इस दण्डकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल एकसौ त्रेसठ सागर कहा है। सर्वार्थसिद्धिमें मनुष्यगति पञ्चकका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। २४३. नपुंसकवेदमें प्रथम दण्डक, द्वितीय दण्डक और तिर्यश्चगतित्रिकका भन्न सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। पुरुषवेददण्डकका भङ्ग सातवीं पृथिवीके समान है। देवगतिचतुष्कके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्रास और त्रसचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका भङ्ग ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। मात्र औदारिक शरीरआङ्गोपाङ्गका यह काल एक अन्तर्मुहूर्त अधिक है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन सागर है। विशेषार्थ—सामान्य तिर्यश्वामें प्रथम और द्वितीय दण्डक तथा तिर्यश्चगतित्रिकका जो काल कहा है वह अविकल नपुंसकवेदमें बन जाता है, इसलिए इनका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जाननेकी सूचना की है। सम्यग्दृष्टि मनुष्य पर्याप्त नपुंसकवेदीके देवगतिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता रहता है और इनमें सम्यक्त्वका काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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