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उत्तरपगदिपदेसबंधे कालो
१४९ मणुसाणु०-पसत्य-तस-सुभग-सुस्सर-आदें-उच्चा० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० पणवणं पलि० देसू० । देवगदि०४ उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि. देसू ० । ओरालि०-पर-उस्मा०-बादर-पजत्त-पत्ते० उक० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० पणवणं पलि. सादि० । तित्थ० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी देसूणाणि ।
२४२. पुरिसेसु पंचणाणावरणादिपढमदंडओ सादादिविदियदंडओ' इत्थिभंगो । णवरि सगहिदी० । पुरिस० उ० ज० ए०, उ० बेसमः । एवं सव्वाणं उक्क० पदेसबंधो । अणु० ज० ए०, उ० बेछावट्टि. सादि० दोहि पुत्वकोडीहि । देवगदि०४ संस्थान, औदारिकशरीरआङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य है। देवगतिचतष्कके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । औदारिकशरीर, परघात, उच्छास, बादर, पर्याप्त और प्रत्येकके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य है। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल आपके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेश बन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट कायस्थिति सौ पल्यवृथक्त्वप्रमाण होनेसे इसमें पाँच ज्ञानावरणादि ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्वप्रमाण कहा है। सातावेदनीय आदिमें कुछ सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और कुछ अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है । सम्यग्दृष्टि देवीके पुरुषवेद आदिका निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम पचपन पल्य कहा है। उत्तम भोगभूमिमें पर्याप्त होने पर मनुष्यिनीके देवगति चतुष्कका नियमसे बन्ध होता है, इसलिए यहाँ देवगतिचतुष्कके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। देवीके और वहाँसे च्युत होने पर मिथ्यादृष्टि जीवके अन्तर्मुहूर्त काल तक औदारिकशरीर आदिका बन्ध सम्भव है, इसलिए
औदारिकशरीर आदिके अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्धका उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य कहा है। मनुष्यिनी आठ वर्षकी होकर सम्यक्त्वको उत्पन्न कर तीर्थङ्कर प्रकृतिका एक पूर्वकोटि कालके अन्त तक निरन्तर बन्ध कर सकती है, इसलिए यहाँ तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है।
२४२. पुरुषोंमें पाँच ज्ञानावरणादि प्रथम दण्डक और सातावेदनीय आदि द्वितीय दण्डकका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि प्रथम दण्डकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कहते समय वह अपनी. कायस्थितिप्रमाण कहना चाहिए। पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो पूर्वकोटि अधिक दो छयासठ सागर है।
१. वा०प्रतौ 'सा [दा] दियदंडो' इति पाठः ।
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