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________________ १४६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अवगदवेद सुहुमसंप०-उवसम०-सम्मामि० । २३७. कायजोगीसु पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरालि०तेजा-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० उक० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० अणंतकालमसं०। तिरिक्ख०२-णीचा० उ० अणु० ओघं । सेसाणं पगदीणं मणजोगिभंगो'। २३८. ओरालिका० पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसकसा०-भय-दु०-ओरा०तेजा०-क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० वावीसं वस्ससहस्साणि देसू० । तिरिक्खगदिदंडओ उक्क० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० तिण्णि वाससहस्साणि देस० । सेसाणं मणजोगिभंगो। साम्परायसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें जानना चाहिये । विशेषार्थ-इन सब मार्गणाओंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इनमें सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । शेष कथन स्पष्ट ही है। __ २३७. काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका भङ्ग ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। तिर्यश्चगतिद्विक और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका भन्न ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-काययोगी जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त कालप्रमाण है। इनमें इतने काल तक प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है। ओघसे तिर्यश्चगतिद्विक और नीचगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जो काल कहा है वह यहाँ भी सम्भव है. इसलिए इनका भङ्ग ओघके समान कहा है। शेष प्रकृतियोका भङ्ग मनायागा जीवोंके समान है यह स्पष्ट ही है। २३८. औदारिककाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका भङ्ग ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। तिर्यश्चगतिदण्डकके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका भङ्ग ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन हजार वर्षप्रमाण है। शेष प्रकृतियाका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्षप्रमाण है, इसलिए इस योगवाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। तथा वायुकायिक जीवोंमें औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम तीन हजार वर्षप्रमाण है, इसलिए यहाँ तिर्यश्चगतिदण्डकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूते कम तीन हजार वर्ष कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। १. आ०प्रतौ 'सेसाणं मणजोगिभंगो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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