SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे कालो १४७ २३९. ओरालियमि० पंचणा० णवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक० -भय-दु० -देवग०चत्तारिसर- वेड व्वि० अंगो० - वण्ण४ - देवाणु ० - अगु० - उप० णिमि० - तित्थ० - पंचंत० उ० ज० उ० ए० । अणु० ज० उ० अंतो० । सेसाणं पगदीणं उ० ज० उ० ए० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । आउ० ओघं । एवं वेउव्वियमि० आहारमि० । 3 २४० कम्मइग ०२ एइंदियपगदीणं उ० ज० उ० ए० । अणु० ज० ए०, उ० तिणि सम० । तसपगदीणं उ० ज० उ० ए० । अणु० ज० ए०, उ० बेसम० । अधवा देवदिपंचगवञ्जाणं सव्वपगदीणं उ० ज० उ० ए० । अणु० ज० ए०, उ० तिण्णिसम० । २३९. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, चार शरीर, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । आयुकर्मका भङ्ग ओधके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी तथा आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए । विशेषार्थ — औदारिकमिश्रकाययोगमें दो आयुओंको छोड़कर सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध शरीरपर्याप्त पूर्ण होनेके अनन्तर पूर्व समय में होता है, इसलिए ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के साथ अन्य प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है | किन्तु प्रथम दण्डकमें कही गई ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंका यहाँ शेष अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है, इसलिए यहाँ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा इनके सिवा बँधनेवाली परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं, इसलिए उनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । यहाँ दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है, क्योंकि आयुकर्मका भङ्ग त्रिभागमें या मरणसे अन्तर्मुहूर्त पूर्व होता है और जो औदारिकमिश्रकाययोगी आयुका बन्ध करता है वह लब्ध्यपर्याप्त होता है, इसलिए यहाँ ओघके समान उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल प्राप्त होनेमें कोई बाधा नहीं आती । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें इसी प्रकार अपनी अपनी प्रकृतियोंका काल घटित हो जाता है, इसलिए उनमें औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान जानने की सूचना की है । २४०. कार्मणकाययोगी जीवोंमें एकेन्द्रिय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल तीन समय है । त्रसप्रहृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अथवा देवगतिपञ्चकको छोड़कर सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । १. आ० प्रतौ 'उ० ज० ए०' इति पाठ: । २. ता० आ० प्रत्योः 'आहारमि० श्रसादभंगो । कम्मइग० इति पाठः । ३. श्र०प्रतौ 'उ० ज० ए०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy