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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे कालो १४१ २३४. पुढवि०-आउ० तेउ०-वाउ० धुवियाणं उ० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा। बादरे कम्मद्विदी० । पज्जत्तेसु संखेंजाणि वाससहस्साणि। वणप्फदि० एइंदियभंगो। चादरवणप्फदिपत्तेय-णिगोदजीवाणं पुढविकाइयभंगो । सेसं अपज्जत्तभंगो। २३५. तस-तसपञ्जत्त० धुवियाणं पढमदंडओ उ० ओघं । अणु० ज० ए०, उ० सगढिदी० । सेसाणं पंचिंदियभंगो। २३६, पंचमण-पंचवचि० सव्वपगदीणं उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । एवं मणजोगिभंगो वेउव्वि०-आहारका०-कोधादिचदुक्क २३४. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धके कालका भङ्ग ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। इनके बादरों में कर्मस्थिति बादर पयोप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है। वनस्पतिकायिकोंमें एकेन्द्रियोंके समान भङ्ग है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और बादर निगोद जीवोंमें पृथिवीकायिक जीवोंके समान भङ्ग है। इन सबमें शेष भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ—पृथिवीकायिक आदि चारोंकी कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। बादर पृथिवीकाय आदि चारोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण है और इनके पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण कहा है । वनस्पतिकायिकोंकी कायस्थिति अनन्तकालप्रमाण है। पर इनमें अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध यदि निरन्तर हो तो असंख्यात लोकप्रमाण काल तक ही होगा। कारणका विचार एकेन्द्रियमार्गणाकी प्ररूपणाके समय कर आये हैं, इसलिए इनमें एकेन्द्रियोंके समान भङ्ग कहा है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और बादर निगोद जीवोंकी कायस्थिति बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है, इसलिये यहाँ इन जीवोंका भङ्ग पृथिवीकायिक जीवोंके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २३५. त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें प्रथम दण्डकमें कही गई ध्रुववाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका भङ्ग ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है। विशेषार्थ-त्रसोंकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागर और त्रसपर्याप्तकोंकी कायस्थिति दो हजार सागर है। इतने काल तक इनके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण कहा है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियोंके समान है,यह स्पष्ट ही है। २३६. पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनोयोगी जीवोंके समान वैक्रियिककाययोगी, आहारककाययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, अपगतवेदी, सूक्ष्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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