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________________ १४४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे २३३. पंचिंदिएसु२ पंचणा०-णवदंसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-तेजा०क०-वण्ण४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । एवं सव्वाणं उ० पदेसबंधो० । अणु० ज० ए०, उ० सागरोवमसह० पुव्वकोडिपुधत्ते० । पजत्ते. अणु० ज० ए०, उ० सागरोवमसदपुधत्तं । साददंडओ मूलोघं । पुरिसदंडओ ओघं । तिरिक्ख०-ओरालि०-ओरालि अंगो'-तिरिक्खाणु०-णीचा० ज० ए०, उ० तेत्तीसं० सादि० अंतोमुहुत्तेण सादि० । मणुसगदिदंडओ देवगदिदंडओ पंचिंदियदंडओ समचदुदंडओ तित्थयरं च ओघं ।। उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष कहा है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी कायस्थिति तो असंख्यात लोक प्रमाण है। पर इनमें पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों को कायस्थिति अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं है, इसलिए सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें उनकी और उनमें पर्याप्तकोंकी कायस्थितिको ध्यानमें रख कर ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल न कह कर योगस्थानोंको ध्यानमें रख कर उत्कृष्ट काल कहा है, क्योंकि यह सम्भव है कि जो योग इनमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका कारण हो वह क्रमसे अन्य सब योगोंके होनेके बाद ही प्राप्त हो और सब योगस्थान जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिए इनमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके और तिर्यञ्चगतित्रिकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। सूक्ष्म पृथिविकायिक आदि जीवों में यह काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। विकलत्रयोंकी कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष कहा है। यहाँ जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उन सबमें शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है,यह स्पष्ट ही है। २३३. पश्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल है। पञ्चेन्द्रियों में अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक हजार सागर है। पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग मूलोघके समान है। पुरुषवेददण्डकका भङ्ग ओघके समान है। तिर्यश्चगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, तिर्यश्वगत्यानुपर्वी और नीचगोत्रके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर है। मनुष्यगतिदण्डक, देवगतिदण्डक, पञ्चेन्द्रियजातिदण्डक, समचतुरस्रसंस्थान दण्डक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय और पश्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण काल तक ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी कायस्थितिप्रमाण कहा है। इन दोनों मार्गणाओंमें तिर्यश्चगति आदि पाँच प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सातवें नरकमें और वहाँसे निकलनेपर अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्भव है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर कहा है। दण्डकोंमें व फुटकर रूपसे कही गई शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट प्रदेशबन्धके कालका विचार ओघ प्ररूपणाके समय जिस प्रकार घटित करके बतला आये हैं,उस प्रकारसे यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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