SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरपगदिपदेस बंधे कालो १४३ सेसाणं उक० अणु० अपजतभंगो । बादरे धुवियाणं अणु० ज० ए०, उ० अंगुल० असंखे० । तिरिक्ख० - तिरिक्खाणु०-णीचा० अणु० ज० ए०, उ० कम्मठ्ठिदी० । बादरपत्र • संखजाणि वाससह ० धुवियाणं तिरिक्खगदितिगस्स च । सेसाणं अपजतभंगो । सुहुम० धुविगाणं तिरिक्खगदितियस्स च उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० सेढीए असंखेंज दि० । सेसाणं पगदीणं अपत्तभंगो । एवं सव्वसुहुमाणं । विगलिंदि० धुवियाणं उ० ज० ए०, उ० बेसम० । एवं सव्वाणं उकस्सपदेसंबंधो० । अणु० ज० ए०, उ० संखेजाणि वाससह० । सेसाणं अप्पत्तभंगो । ज० ए०, उ० है । इसी प्रकार सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है । बादर जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तिर्यगति, तिर्यगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है । बादर पर्याप्तक जीवों में ध्रुवबन्धवाली और तिर्यञ्चगतित्रिक के अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकों के समान है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और तिर्यगतित्रिक उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकोंके समान है। इसी प्रकार सब सूक्ष्म जीवों में जानना चाहिए। विकलेन्द्रियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । इसी प्रकार सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग अपर्याप्तकों के समान है । विशेषार्थ — एकेन्द्रियोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अपनी- अपनी अन्य योग्यताओंके साथ बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव करते हैं और एकेन्द्रियोंमें इनका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात लोकप्रमाण है । इसका यह अभिप्राय हुआ कि जब तक एकेन्द्रिय जीव बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त नहीं होता तब तक वह ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध ही करता रहता है, इसलिये तो एकेन्द्रियों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा हैं । तथा अग्निकायिक और वायुकाधिक जीव अपनी कायस्थितिके भीतर निरन्तर तिर्यञ्चगतित्रिकका बन्ध करते हैं, इसलिये एकेन्द्रियों में इन तीन प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। बादर एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । यह सम्भव है कि इस कालके भीतर ये जीव ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका निरन्तर अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते रहें, इसलिये इनमें उक्त प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। पर बादर एकेन्द्रियों में बादर अग्निकायिक और चादर वायुकायिक जीवोंकी कायस्थिति कर्मस्थितिप्रमाण है, इसलिये बादर एकेन्द्रियों में तिर्यञ्चगतित्रिक के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण कहा है। बादर पर्याप्तोंकी और इनमें अग्निकायिक व वायुकायिक जीवोंकी उकृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्षप्रमाण है, इसलिए बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके और तिर्यंचगतित्रिकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy