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________________ १४० महाबंधे पदेसबंधाहियारे ___२२८. पंचिंतिरि०३ पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ'०-सोलसक०-भय-दु०-तेजा०क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० उ० ओधं । अणु० सव्वाणं ज० ए०, उ० तिण्णि पलि० पुव्वकोडिपुधत्तं । साददंडओ तिरिक्खोघं । णवरि तिरिक्ख०३-ओरालियं च पविढं । पुरिसदंडओ पंचिंदियदंडओ तिरिक्खोघं । णवरि पंचिं०तिरि०जोणिणीसु पुरिसदंडओ तिण्णिपलि० दे०। कहा है, क्योंकि तियञ्चोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त काल प्रमाण है। दो वेदनीय आदि कुछ सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं और कुछ अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त कहा है। सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्चों में पुरुषवेद आदिका नियमसे बन्ध होता है और तिर्यञ्चोंमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल तीन पल्य है, इसलिए यहाँ इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल तीन पल्य कहा है। अग्निकायिक व वायुकायिक जीव तिर्यश्चगतिद्विक व नीचगोत्रका नियमसे बन्ध करते हैं और इनकी कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए यहाँ इन तीन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। भोगभूमिमें पञ्चेन्द्रियजाति आदिका बन्ध तो होता ही है। साथ ही जो तिर्यञ्च मर कर भोगभूमिमें जन्म लेते हैं उनके अन्तर्मुहुर्त पहलेसे इनका नियमसे बन्ध होने लगता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा है। २२८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व,सोलह कषाय,भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कामेशरीर, वर्णचतुष्क, अगरुलधु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका सब प्रकृतियोंका जघन्य काल ऐक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । सातावेदनीयदण्डक का भङ सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इस दण्डकमें तिर्यश्चगतित्रिक और औदारिकशरीरको प्रविष्ट कर लेना चाहिए । पुरुषवेददण्डक और पश्चेन्द्रियजातिदण्डकका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियोंमें पुरुषवेददण्डकका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च त्रिककी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, इसलिए इन तीन प्रकारके तिर्यञ्चोंमें पाँच ज्ञानावरणादिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल उक्त प्रमाण कहा है, क्योंकि ये सब ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इतने काल तक इनका निरन्तर अनुत्कृष्ट बन्ध होना सम्भव है। यहाँ सातावेदनीयदण्डकका भङ्ग सामान्य तियश्चोंके समान है यह स्पष्ट ही है। तथा इन तिर्यञ्चोंमें तिर्यश्चगतित्रिक और औदारिकशरीर सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हो जाती हैं, इसलिए इन्हें सातावेदनीयदण्डकके साथ गिनाया है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें परुषवेददण्डक और पञ्चन्द्रियजाति दण्डकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिककी मुख्यता से ही कहा है, इसलिए इसे सामान्य तियञ्चांके सामान जानने की सूचना की है। मात्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवों में पुरुषवेददण्डकके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहनेका कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव मर कर इन तिर्यञ्चोंमें नहीं उत्पन्न होता और अपर्याप्त अवस्थामें अन्य सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंका भी बन्ध होता है, इसलिए इन तियञ्चोंमें पुरुषवेद आदि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य ही प्राप्त होता है। १. ता०प्रतौ 'णवदंस० मिछ (च्छ)' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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