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________________ १३९ उत्तरपगदिपदेसबंधे कालो २२७. तिरिक्खेसु पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-ओरा-तेजा०क०-वण्ण०४-अगु०-उप०-णिमि०-पंचंत० उ० ज० ए०, उ० वेसम० | अणु० ज० ए०, उ० अणंतका० । दोवेदणी०- छण्णोक०-चदु आउ'०-दोगदि-चदुजादि-पंचसंठा० ओरा० अंगो०-छस्संघ०-दोआणुपु०-आदाउजो०-अप्पसत्थ०-थावरादि०४-अथिरादितिण्णियुग०-दूभग-दुस्सर-अणादें० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । पुरिस०-देवग०-वेउवि०-समचदु'०-वेउ०अंगो-देवाणु०-पसत्थवि०-सुभग सुस्सर आर्दै०-उच्चा० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि० । तिरिक्ख०-तिरिक्खाणु०-णीचा० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० असंखेंजा लोगा। पंचिं०-पर-उस्सा०-तस०४ उ० ज० ए०, उ० बेसम० । अणु० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि० सादि० । विशेषता है कि तिर्यञ्चगतिद्विक और नीचगोत्र ये तीन छठे नरक तक सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिये इन नरकोंमें इनका काल असातावेदनीयके समान घटित कर लेना चाहिये। साथ ही तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध तीसरे नरक तक ही होता है, इसलिये इसके कालका विचार प्रारम्भके तीन नरकोंमें ही करना चाहिये। २२७. तिर्यञ्चों में पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कामणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट अनन्तकाल है। दो वेदनीय, छह नोकषाय, चार आय, दो गति, चार जाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त बिहायोगति, स्थावर आदि चार, अस्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेयके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पुरुषवेद, देवगति, वैक्रियिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। पञ्चन्द्रियजाति, परघात, उच्छास और सचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है ओर उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। विशेषार्थ-यहाँ व आगेकी मार्गणाओं में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य व उत्कृष्ट काल और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल पहलेके समान जानना चाहिए। पाँच ज्ञानावरणादि ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं और एकेन्द्रियों में औदारिकशरीर भी ध्रुवबन्धिनी प्रकृति है, इसलिए तियञ्चोंमें इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्त कालप्रमाण १. श्रा०प्रतौ 'कृण्णोक० दो आउ०' इति पाठः । २. प्रा०प्रतौ ‘देवग० समचदुः' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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