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________________ उत्तरपदिपदेसबंधे कालो १४१ २२९. पंचिंदि० तिरि०अपज्ज० सव्वपगदीणं उ० ज० ए०, उ० बे सम० । अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । एवं सव्वअपजत्तगाणं तसाणं थावराणं च सव्वसुहुमपञ्जत्तगाणं च । २३०. मणुस ०३ पंचणा० णवदंसणा०-मिच्छ० -सोलसक० -भय-दु० - तेजा० क ०वण्ण ०४ - अगु० -उप० - णिमि० - पंचंत० उ० ज० ए०, उ० बेसम० । एवं सव्वेसिंउक्कस्सगं । अणु० ज० ए०, उ० तिष्णि पलि० पुव्वको डिपुधत्तं । पुरिस० - देवर्गादिपंचिदि० - वे उव्वि० - समचदु ० वे उच्चि ० अंगो० देवाणु० - पर० उस्सा ० - पसत्थ ० -तस०४सुभग-सुसर आदें. ० उच्चा० अणु० ज० ए०, उ० तिष्णि पलि० सादि० पुव्वकोडितिभागेण० । तित्थ० अणु० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी० दे० । सेसाणं अणु० ज० ए०, उ० अंतो० । णवरि मणुसिणीस पुरिसदंडओ जोणिणिभंगो । २२९. पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है । इसी प्रकार त्रस और स्थावर सब अपर्याप्तकों में तथा सब सूक्ष्मपर्याप्तकों में जानना चाहिए । विशेषार्थ —- यहां जितनी मार्गणाओंका निर्देश किया है उन सबकी कायस्थिति अन्तमुहूर्तप्रमाण है, इसलिए इनमें यहां बँधनेवाली सब प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। २३०. मनुष्यत्रिक पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनवरण, मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्ष्ट काल दो समय है । इसी प्रकार सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल जानना चाहिए । अनुत्कृष्ट प्रदेशचन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । पुरुषवेद, देवगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है । तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । शेष प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में पुरुषवेददण्डकका भङ्ग तिर्यभ्वयोनिनी जीवोंके समान है । विशेषार्थ- प्रथम दण्डकमें सब ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ कहीं हैं और मनुष्योंकी उत्कृष्ट काय स्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, इसलिए इनमें पाँच ज्ञानावरणादिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। मनुष्य और मनुष्यपर्याप्तकों में सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है और ऐसे मनुष्योंके पुरुषवेद आदिका नियमसे बन्ध होता है, इसलिए इन दो प्रकारके मनुष्यों में पुरुषवेद आदिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त कालप्रमाण कहा है। पर मनुष्यिनियों में सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल तिर्यच योनिनी जीवोंके समान है, इसलिए इनमें पुरुषवेद आदिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का उत्कृष्ट काल तिर्यश्च योनिनी जीवोंके समान कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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