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________________ १३० महाबंधे पदेसबंधाहियारे अण्ण० घोल० छविध० ज०जो । २१६. संजदासंज. पंचणा दंडओ घोल. अट्ठविध० ज०नो० । असादा०अरदि-सोग० जह० घोल० सत्तविध० ज०जो० । देवाउ० ज० ५० क. १ अण्ण घोल० अट्ठविध० ज०जो० । देवगदिदंडओ जह० घोल० एगुणतीसदि० सह अट्ठविध० ज०जो० । अथिर-असुभ-अजस० ज० प० क.? अण्ण० घोल० एगुणतीसदि० सह सत्तविध० ज०जो०। २१७. चक्खु० पंचणा०-णवदंसणा०-सादासाद०-मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०दोगोद०-पंचंत० ज० ५० क० १ अण्ण० चदुरिंदि० पढम०आहार० पढमस०तब्भव० ज०जो० । एवं सव्वदंडगाणं एसेव आलावो । वेउव्वि०-आहारदुग-तित्थ. ओघं। __२१८. किण्ण-णील-काउ० ओघं। णवरि देवगदि०४ जहण्ण. मणुस० असंज० पढम आहार० पढम०तब्भव. अहावीसदि० सह सत्त विध० ज०जो० । संयत जीवोंमें जानना चाहिए । सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें छह कर्मोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? छह प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर घोलमान सूक्ष्मसाम्परायिक संयत जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। ___२१६. संयतासंयत जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणदण्डकके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी आठ प्रकारके कर्मोको बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर घोलमान संयतासंयत जीव है। असातावेदनीय, अरति और शोकके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर घोलमान जीव है। देवायुके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? आठ प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर घोलमान जीव देवायके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। देवगतिदण्डकके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी नामकर्मकी उनतीस प्रकृतियोंके साथ आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर घोलमान जीव है। अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? नामकर्मकी उनतीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर घोलमान जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। २१७. चक्षुदर्शनी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, दो गोत्र और पाँच अन्तरायके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? प्रथम समयवर्ती आहारक, प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर चतुरिन्द्रिय जीव उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। इसी प्रकार सभी दण्डकोंका यही आलाप है। वक्रियिकद्विक, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। २१८. कृष्ण, नील और कापोतलेश्यामें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी प्रथम समयवर्ती आहारक, प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ, नोमकर्मको अट्ठाईस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कोका बन्ध करनेवाला और १. ता. प्रतौ दोगदि. पंचंत० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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