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________________ ११६ महाबँधे पदेसंबंधाहियारे ० माणुस - मसाणु तिरिक्खगदिभंगो। णवरि एगुणतीसदि ० सह सत्तविध० ज०जो० । तित्थ० ज० प० क० ? अण्ण० असंजद० पढम० आहार० पढम० तब्भव० तीसदि ० सह सत्तविध० ज०जो० । एवं पढमाए । विदियाए तदियाए सव्वपगदीणं ज० प० क० ? अण्ण० मिच्छा० पढम० आहार • पढम० तब्भव० ज०जो० । तित्थ० ज० प० क० ? अण्ण० असंज० घोलमा० तीसदि० सह अट्ठविध० ज०जो० । आउ० णिरयोघं । चउत्थीए पंचमीए छडीए तं चेव । णवरि [तित्थयरं वज्र० । सत्तमीए एवं चेव । णवरि] मणुस ० - मणुसाणु० ज० प० क० ? अण्ण० असंज० घोलमा० एगुणतीस दि ० ' सह सत्तवि० जह०जो० । उच्चा० ज० प० क० ? अण्ण० असंज० घोलमा० ज०जो० । १९९. तिरिक्ख० - एइंदि० सुहुम० पञ्ज० - अपज० - पुढ० - आउ० तेउ० --वाउ० सिं च सुमपजत्तापञ्ज० वणप्फदि- णिगोद-सुहुमपजत्तापञ्ज० कायजोगि ० - असंज ० प्रकृतियों के साथ सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर नारकी उक्त प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । इतनी विशेषता है कि नामकर्मकी उनतीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मों का बन्ध करनेवाले जघन्य योगसे युक्त जीवके यह स्वामित्व कहना चाहिए । तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य प्रदेशबन्ध का स्वामी कौन है ? प्रथम समयवर्ती आहारक, प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ, नामकर्मकी तीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला और जघन्य योगसे युक्त अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी उक्त प्रकृतिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है । इसीप्रकार पहली पृथ्वी में जानना चाहिए। दूसरी और तीसरी पृथिवीमें सब प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? प्रथम समयवर्ती आहारक, प्रथमसमयवर्ती तद्भवस्थ और जघन्य योग से युक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीव सब प्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? नामकर्मकी तीस प्रकृतियोंके साथ आठ प्रकार के कर्मोका बन्ध करनेवाला और जघन्य योग से युक्त अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि घोलमान जीव तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है। आयुकर्मका भङ्ग सामान्य नारकियों के समान है। चौथी, पाँचवीं और छठी पृथिवी में वही भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़कर जघन्य स्वामित्व कहना चाहिए। सातवीं पृथिवी में इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? नामकर्मकी उनतीस प्रकृतियों के साथ सात प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाला और जघन्य योग से युक्त अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टि घोलमान जीव उक्त दो प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है । उच्चगोत्रके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? जघन्य योगसे युक्त अन्यतर असंयत सम्यग्दृष्टि जीव उच्चगोत्र के जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी है । १९९. तिर्यञ्च, एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय सूक्ष्म और उनके पर्याप्त- अपर्याप्त, पृथिवी कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीव तथा उनके सूक्ष्म और पर्याप्त - अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक और निगोद तथा उनके सूक्ष्म और पर्याप्त अपर्याप्त, काययोगी, असंयत, १. ता०प्रतौ घोड० एगुणतीसं० इति पाठः । २. ता०प्रतौ घोड ज०जो० इति पाठः । ३. ता० प्रा० प्रत्योः काजोगि एस० कोधादि ४ असंज० इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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