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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सामित्तं प०० क० ? अण्ण० मिच्छा० सव्वाहि पज. पणवीसदिणामाए सह सत्तविध० उ०जो० । मणुस०-पंचिं०-समचदु०-ओरा०अंगो०-वजरि०-मणुसाणु०-पसत्थवि०तस०-सुभग-सुस्सर-आदें उ० प०बं० क० १ अण्ण० सम्मा० मिच्छा० सव्वाहि पज० एगुणतीसदिणामाए सह सत्तविध० उ०जो० । चदुसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०दुस्सर० उ० प०७० क.? अण्ण० मिच्छा० एगुणतीसदिणामाए सह सत्तविध० उ०जो० । आदाउजो० उ० प०६० क० ? अण्ण० मिच्छादि. छब्बीसदिणामाए सह सत्तविध० उ०जो० । तित्थ० णिरयभंगो। एवं भवण-वाण-जोदिसि । णवरि तित्थ० वञ्ज । सोधम्मीसाणे देवोघं । सणकुमार याव सहस्सार त्ति रहगभंगो। आणद याव णवगेवजा त्ति सहस्सारभंगो। णवरि तिरिक्ख०-उज्जो० वज । अणुदिस याव सव्वह त्ति पंचणा०-छदंसणा०-सादासाद०-बारसक०-सत्तणोक०-उच्चा०-पंचंत० उ० प०७० क.? अण्ण० सव्वाहि प० सत्तविध० उ०जो०। मणुसाउ० उ० प०० क० १ अण्ण० अहविध० उ०जो० । मणुस-पंचिंदि०-तिण्णिसरीर०-समचदु०-ओरा०अंगो०-वजरि०-वण्ण०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थवि०-तसादि०४-थिरादितिष्णियु०प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ, नामकर्मकी पच्चीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, समचतुरनसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्गषभनाराच संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, सुभग, सुस्वर और आदेयके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ, नामकर्मकी उनतीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। चार संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? नामकर्मकी उनतीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि देव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। आतप और उद्योतके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? नामकर्मकी छब्बीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर मिथ्यादृष्टि देव उक्त दो प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्कर प्रकृतिको छोड़कर स्वामित्व कहना चाहिए। सौधर्म और ऐशान कल्पमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। आनत से लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें सहस्रार कल्पके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतिद्विक और उद्योतको छोड़कर कहना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, सात नोकषाय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है? सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ, सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर देव उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? आठ प्रकारके कर्मोका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर देव मनुष्यायुके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। मनुष्यगति, पञ्चन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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