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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे उ०जो० । मणुसगदि-चदुजादि-ओरालि० अंगोवंग-असंपत्त०-मणुसाणु०-पर०उस्सा०-तस-पज०-थिर-सुभ-जसगित्ति० उ० प०बं० क. ? अण्णदर० सण्णि. पणवीसदिणामाए सह सत्तविध० उ०जो०। पंचसंठा०-पंचसंघ-सुभग-दोसरआदें उ०प०० क. ? अण्ण० सण्णि. एगुणतीसदिणामाए सह सत्तविध० उ०. जो० । [दोविहा० उ० पं०७० क० ? अण्ण० सण्णि. अट्ठावीसदिणामाए सह सत्तविध० उ०जो० । ] आदाउञ्जो० ओघं । एवं सव्वअपजत्तगाणं तसाणं थावराणं च एइंदि०-विगलिं०-पंचकायाणं च । णवरि अप्पप्पणो जादी कादव्वा । एइंदिएसु बादरपजत्तगस्स त्ति बादरे पञ्जत्तगस्स ति सुहुमे पज्जत्तगस्स त्ति विगलिंदिए पज्जत्तगस्स त्ति तस-पंचिदिएसु सण्णि त्ति भाणिदव्वा । १७६. मणुसेसु णाणावरणदंडओ ओघं। सम्मादिडिपाओग्गाणं पि ओघं । सेसाणं पंचिंतिरि०भंगो' । णवरि सव्वासिं मणुसो त्ति ण भाणिदव्वं । १७७. देवेसु पंचणा दंडओ थीणगि दंडओ छदंस दंडओ दोआउ०२ णिरयोघं । तिरिक्ख०-एइंदि०-ओरालि०-तेजा०-क०-हुंड०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०अगु०४-थावर-बादर-पज्ज -पत्ते-थिरादितिण्णियुग०-दूभग०-अणा०-णिमिण० उ० करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर संज्ञी जीव उक्त दण्डकके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है । मनुष्यगति, चार जाति, औदारिकशरीर अङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्रास, त्रस, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है? नामकर्मकी पच्चीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर संज्ञी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, सुभग, दो स्वर और आदेयके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? नामकर्मकी उनतीस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर संज्ञी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है। दो विहायोगतिके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी कौन है ? नामकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके साथ सात प्रकारके कर्मोंका बन्ध करनेवाला और उत्कृष्ट योगसे युक्त अन्यतर संज्ञी जीव उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामी है । आतप और उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार त्रस और स्थावर सब अपर्याप्तकोंमें तथा एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी जातिमेंकहनी चाहिए । मात्र एकेन्द्रियोंमें बादर पर्याप्तक, बादरों में पर्याप्तक, सूक्ष्मों में पर्याप्तक, विकलेन्द्रियोंमें पर्याप्तक तथा त्रस और पञ्चेन्द्रियोंमें संज्ञी जीव स्वामी है ऐसा कहना चाहिए। १७६. मनुष्योंमें ज्ञानावरणदण्डक ओषके समान है। सम्यग्दृष्टिप्रायोग्य प्रकृतियोंका भङ्ग भी ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । इतनी विशेषता है कि सब प्रकृतियोंका स्वामित्व कहते समय मनुष्य ऐसा नहीं कहना चाहिए। १७७. देवोंमें पाँच ज्ञानावरणदण्डक, स्त्यानगृद्धिदण्डक, छह दर्शनावरणदण्डक और दो आयुओंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। तियश्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर आदि तीन युगल, दुर्भग, अनादेय और निर्माणके उत्कृष्ट १. आ० प्रतौ सेसाणं पि पंचितिरिभंगो इति पाठः । २. ता० प्रती दंडओ आउ इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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