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________________ महाबंघे पदेसंबंधाहियारे अप्पा बहु आणुगमो ० १४३. अप्पा बहुगं दुवि० - ओघे० आदे० | ओघे० सत्तण्णं क० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवद्वि • अनंतगु० । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० । एवं कायजोगिओरालि० लोभक० मोह० अचक्खु ० - भवसि ० - आहारग ति । एदेसिं आउ० सव्वत्थोवा अवहि ० ६० । अवत्त० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज० विसे० । ७८ त्ति १४४. णिरएसु सत्तण्णं क० सव्वत्थोवा अवडि० । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० ० । आउ० ओघं । एवं सव्वणिरय - सव्वतिरिक्ख० सव्वअपज० देवा याव' सहस्सार एइंदि० - विगलिंदि० - पंचका० - ओरालि ०मि० वेड व्वि० - इत्थि ० - पुरिस०-णवुंस ०कोधादि ०४ - मदि० - सुद० - विभंग ० - संज दासंजद ० - असंजद ० - [ पंचले ० - अब्भवसि ०- ] वेदग '० - सासण० - सम्मामि० - मिच्छा०-असण्णि त्ति । १४५. मणुसेसु सत्तणं क० सव्वत्थो० अवत्त० । अवद्वि० असं० गु० उ । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० । आउ० ओघं । एवं पंचिं ० -तस०२ - पंचमण० - पंचबचि० अल्पबहुत्वानुगम १४३. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे सात कर्मों के अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, मोहनीय कर्मकी अपेक्षा लोभकषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए। इनमें आयुकर्मके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । १४४. नारकियोंमें सात कर्मों के अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। आयुकर्मका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यन, सब अपर्याप्त, सामान्य देव, सहस्रार कल्पतकके देव, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पाँच स्थावरकायिक, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकबेदी, क्रोधादिं चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुतज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, संयतासंयत, असंयत, पाँच लेश्यावाले, अभव्य, वेदकसम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिये । १४५. मनुष्योंमं सात कर्मों के अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। आयुकर्मका भङ्ग ओघके समान है । इसी प्रकार पचेन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुत १. आ० प्रतौ श्रपज ० सम्वदेवा याव इति पाठः । २ ताप्रतौ संज० प्रतौ श्रसंजद० वेदग० इति पाठः । ३. ता०प्रतौ सव्वत्थो० [अवत्त०] श्रवहि० सव्वत्थो० भवद्वि०, अवत्त० असं० गु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only .. [ खड्ग०] वेदग० श्रा० असं० गु०, श्रा० प्रतौ www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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