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________________ भावपरूवणा ७० ० उ० सेटीए असं० । एवं असंखेजरासीणं संखजरासीणं । बादरपुढ० ' - ओउ ० तेउ ० वाउ०- पत्तेय० पञ्जत्त० पंचिं० तिरि० अप०भंगो । वेउन्त्रि०मि० सत्तण्णं क० ज० ज० ए०, उ० बारसमुहु ० । एदेण सेसाणं पगदिअंतरं दव्वं याव सण्णि त्ति । एवं अंतरं समत्तं । भावाणगमो १४२. भावाणुगमेण दुवि० - ओषे० आदे० । ओघे० अदृण्णं० भुज० अप्प ०अट्टि ० - अवत्त० बंधगा त्ति को भावो ? ओदइगो भावो । एवं याव अणाहारग O दव्वं । असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार असंख्यात राशि और संख्यात राशियोंमें जानना चाहिये। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवोंमें पचेन्द्रिय तिर्यव अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है वैकियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंके भुजगारपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है । इस अन्तर कथनसे शेष मार्गणाओं में संज्ञी मार्गणा तक प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान अन्तरकाल जानना चाहिये । विशेषार्थ नारकियों में सात कर्मों का निरन्तर बन्ध होता रहता है किन्हींके भुजगाररूप और किन्हीं के अल्पतररूप होता है, इसलिए यहाँ सात कर्मों के इन पदोंके अन्तरकालका निषेध किया है । अत्र रहा यहाँ इन कर्मोंका अवस्थितपद सो वह निरन्तर नहीं होता । कभी एक समय के अन्तर से भी हो जाता है और कभी योगस्थानोंके क्रमसे जगश्रोणिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके अन्तरसे होता है, इसलिये इसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। आयुकर्मके अवस्थितपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इसके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर जैसा प्रकृतिबन्ध में अन्तर कहा है उस प्रकार घटित कर लेना चाहिये, क्योंकि जब आयुकर्मका बन्ध होता है तभी ये पद होते हैं यहाँ अन्य जितनी असंख्यात और संख्यात संख्यावाली मार्गणाऐं हैं उनमें उक्त विशेषताओं के साथ अन्तरप्ररूपणा जाननी चाहिये। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त आदिमें पचेन्द्रिय तिर्य अपर्याप्तकों के समान भङ्ग बन जानेसे इसकी अन्तरप्ररूपणा उनके समान जाननेकी सूचना की है । वैयिक मिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है, इसलिये इसमें सात कर्मोंके भुजगारपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त कहा है । इसा प्रकार अपनी-अपनी विशेषताको जानकर अन्तरकाल अन्य सब मार्गणाओं में जानना चाहिये । इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ । भावानुगम १४२. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे आठों कर्मों के भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका कौन-सा भाव है ? औदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । Jain Education International इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ । १. प्रा० प्रतौ असंखेजराखीणं । बादरपुढ० इति पाठः । २ ता०प्रसौ एवं अंतरं समत इति पाठो नास्ति, श्रा० प्रतौ एवं अंतरं दव्वं इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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