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________________ सुलसाख्यानक सा भणइ 'न सक्कइ कु वि लिहेवि, तहिँ रूवहु ए(प)हु ! आयरसु को वि, ऍह चेडयरायह कनधूय, मइ अक्खिय निव ! तुज्झाणुरूव', इय जंपवि हरिसभरंतगत्त, पव्वाई नियठाणम्मि पत्त, राउ वि तसु रूविं, सल्लसरूविं, मुच्छिउ निच्चलु हुयउ किह । निप्पंदसलोयणु, निच्चलचेयणु, परमझाणि वरजोइ जिह ॥ ८ ॥ [९] एत्थंतरि अभयकुमारु पत्तु, निय जणयहँ जो निच्चं पि भत्तु, पणमेवि अजाणिउ जं निविलु, ता जाणिउ जणयह चित्त नहुँ, पय सीसि विघट्टिवि मइविसालु, तो पुच्छइ जाणियदेसकाल, 'चिंतावरु दीसह काइँ अज्जु ?, साहेह जेण साहेमि कज्जु', पञ्चागयचेयणु तो नरेसु, अभयह तं साहइ निरवसेसु, अभएण वुत्तु 'मी करहि खेउ, पेसिज्जउ दूउ अकालखेउ, वरणत्थु तीऍ वरकन्नयाए, चेडयसमीवि सामन्नयाए', तो पेसिउ दूउ नरेसरेण, संपत्तु तेत्थु सो चडयरेण, पडिहारनिवेइउ संपविलु, अस्थाणि नमेविणु पुणु बइठ्ठ, विहिओवयारु निवचेडएण, विन्नवइ दूउ कमवाडएण, 'जा देव ! तुम्ह कऽवि अस्थि बाल, नीसेसकलागमगुणविसाल, वरणत्थ तीऍ निवसेणिएण, हैडं पेसिउ वरभडसेणिएण', तं निसुणवि कोवपुरंतकाउ, पडिभणइ वयणु सो मणुयराउ, 'रे हेहयकुलसंभूय धूय, वाहियकुलम्मि नवि देमि दूय !', तं सव्वु दूउ निवसेणियस्स, आवेवि कहइ अभयऽन्नियस्स, तं निसुणवि सामलवयणु जाउ, निवु राहुगहिउ नं रिक्खराउ, तो भणइ अभउ मंती 'य(म) सोउ, चित्तम्मि करह साहेमि एउ', तं सुणवि पहिट्ठउ पुण वि जाउ, सेणिउ रोमंचियसबकाउ, अभओ वि विणिग्गउ, गेहि समागउ, लिहइ रूवु सेणियनिवह । फलहइ सुविभत्तउं, अइसयपत्तउं, वाहियकुलवंसुब्भवह ॥ ९ [१०] गुलियाऍ करवि सर-वन्नभेउ, साभाविउ छायवि रूवु तेउ, फलहयसमग्गु वाणियगवेसि, गउ चेडउ राणउ जेत्थु देसि, पविसरवि नयरि वेसालियाए, वीहीय निविट्ठ महालियाए, रायउलदुवाराऽऽसन्नियाए, बहुगंधदैव्वपडिपुन्नियाए, 1A B आरिसुकोवि। 2 श्रेष्ठयोगी। 3A B दीसह । 4 C D अज्ज । । 50 D कज्ज। 6A B मं । 700 °णत्थु। 800 हूं। 9A B वरभडभोइएण। 1000 कोवि फु। 11: य(प)मोड। 1200 बस्य। 13 AB°गंध-वस्थपति। मू. .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001387
Book TitleMulshuddhiprakarana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPradyumnasuri
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year
Total Pages248
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size21 MB
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