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५ पद-रचना : क्रिया प्रकरण
प्रारंभिक प्राकृत भाषाओं में कारक रूपों की अपेक्षा क्रिया के रूपों में अधिक विकार हुआ है । व्यंजनान्त नाम शब्दों की तरह व्यंजनांत क्रिया-धातुओं को भी 'अ'कारान्त बनाया गया इससे सरलता एवं एक रूपता आ गयी। द्विवचन का तो सर्वथा लोप हो ही चुका था। परस्मैपद और आत्मनेपद का भेद मिटने लगा । कुछ भाषाओं में आत्मनेपद के कुछ विरल उदाहरण मिलते हैं और बाद में उनका भी क्रमशः लोप हो गया । आत्मनेपद धातु परस्मैपद प्रत्यय लेने लगे । कर्तृ-वाच्य एवं कर्म-वाच्य का भेद धातु सिद्धि तक ही रहा, प्रत्ययों में सर्वथा मिट गया और कर्म-वाच्य के लिए परस्मैपदी प्रत्ययों का ही उपयोग होने लगा।
काल और क्रियार्थ (वृत्ति) के लिए जो दस लकार थे उनमें भी कमी हुई । परोक्ष-भूत का तो सर्वथा लोप हो रहा था, साथ ही साथ अनद्यतनभूत एवं सामान्य-भूत भी शनैः शनैः मिट गये और भूतकाल के लिए एक मात्र कर्मणि कृदन्त के रूपों का प्रचलन हो गया । अपभ्रंश भाषा में भविष्य के बदले विद्यर्थ कृदन्त का प्रयोग बढने लगा । इस प्रकार प्राकृत भाषाओं में मुख्यत: वर्तमान और भविष्य काल तथा आज्ञार्थ और विधिलिंग क्रियार्थ ही प्रचलित रहे । वर्तमान काल भविष्य काल के लिए भी प्रयुक्त होने लगा और विधिलिंग तो चारों के लिए ।
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (OIA) में क्रियात्मक मूल धातु दस गणों में विभक्त है और किसी भी प्रकार के प्रत्यय जोडने के पहले उनमें कोई स्वर या व्यंजन या वर्ण (विकरण तत्त्व) लगाकर उन्हें सिद्ध किया जाता है, परंतु प्राकृत भाषाओं में वे सिद्ध धातु ही प्राकृत सम्बन्धी उपयुक्त ध्वन्यात्मक परिवर्तन के बाद मूल धातु बन गये । इस प्रकार प्राकृत के सभी धातु स्वरान्त बन गये । प्राकृत भाषाओं में 'अ'कारान्त धातुओं की बहुलता है और उनके बाद 'ए' कारान्त की । कुछ धातु 'आ'कारान्त और 'ओ'कारान्त भी मिलते हैं । अनेक धातु 'ए'कारान्त बना दिये गये हैं। अवशिष्ट के रूप में कुछ व्यंजनांत धातुओं के रूप (ध्वन्यात्मक परिवर्तन के बाद) भी मिलते हैं !
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