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प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण
(ज) अपभ्रंश
अपभ्रंश भाषा मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं (प्राकृत भाषाओं) के अंतिम चरण की भाषा रही है । समय की गति के साथ जन-भाषा में विकास होता रहा और देश-प्रदेश के अनुसार अनेक अपभ्रंश बोलियाँ पनपी । इस भाषा में विभक्ति, काल, भाव एवं कृदन्त सम्बन्धी प्रत्ययों में दूरगामी परिवर्तन आये इसीलिए उनकी बहुलता व विविधता पायी जाती है।
अपभ्रंश भाषा 'उ'कार और 'ह'कार बहुल भाषा बन गयी । इसमें नाम विभक्तियाँ घट कर प्रायः तीन ही रह गयीं
(१) प्रथमा के समान द्वितीया और संबोधन, (२) तृतीया और सप्तमी की समानता और (३) चतुर्थी एवं पंचमी षष्ठी के समान । 'अ'कारान्त प्रातिपादिकों की प्रमुखता हो गयी । स्त्रीलिंगी प्रातिपादिक
भी 'अ'कारान्त बन गये । इसमें धातुओं के रूपों में भी कमी आयी । लिंग-व्यत्यय की वृद्धि हुई । आगे चलकर विभक्ति प्रत्ययों का स्थान संबंधवाची शब्दों (Post Positions) ने ले लिया और यही विशेषता इस भाषा को यौगिक से अयौगिक भाषा की तरफ बढाने लगी जो आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का प्रमुख लक्षण है।
इस भाषा की विशेषताएँ निम्न प्रकार से दर्शायी जा सकती
ऋकार की कभी कभी उपलब्धि :
तृणु (तृण), गृहंति (गृह्णन्ति), गृण्हइ (गृह्णाति), सुकृदु (सुकृतः) (२) एँ और ऑ : हस्व ऍ और ओं के उपयोग की वृद्धि हुई और
ये क्रमश: 'इ' और 'उ' में भी बदलने लगे : (i) इक्क (ऍक्क-एक), पिच्छिवि (पेच्छिवि-प्रेक्ष्य), सुक्ख
(सॉक्ख-सौख्य), जुव्वण (जॉव्वण-यौवन), उइण्ण
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