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विविध प्राकृत भाषाएँ
३५ (ऑइण्ण-अवतीर्ण) (ii) विभक्ति प्रत्यय : एण-ऍण इण, एहिं ऍहि-इहिं, ए-p–इ,
ओ=ऑ-उ, हो-हॉ हु, (३) अन्तिम 'ए' और 'ओ' को भी 'इ' और 'उ' में बदला जाने
लगा :
खणि (खणे-क्षणे), देउ ( देवो-देवः), परु (परो-परः) (४) ह्रस्व और दीर्घ स्वरों में अनियमितता आ गयी :
काहाणउ, कहाणउ (कथानक), वसिकय, वसीकय (वशीकृत), पईसइ,
पइसइ (प्रविशति) (५) अंतिम दीर्घ स्वर ह्रस्व बना दिया जाने लगा :
कण्ण (कण्णा-कन्या), सीय (सीया-सीता), संझ (संझा
सन्ध्या), माल (माला) (६) एक स्वर के बदले में दूसरे स्वर का प्रयोग बढने लगा : पट्ठि,
पुट्ठि (पृष्ठ), पिक्क (पक्क), विणु (विना), अप्पुणु (आत्मनः),
लिह, लीह ( रेखा), बाहु, बाह (बाहु), वेणु (वीणा) (७) कभी कभी अघोष व्यंजन घोष होने लगे :
विच्छोहगरु (विक्षोभकरः), सुघ (सुख), कधिद (कथित), सबध
(शपथ), सभल (सफल) (८) प्राकृत की 'य' श्रुति के बदले में 'व' श्रुति का भी आगमन
हुआ : मंदोवरी ( मन्दोदरी), उवर (उदर), उवधि (उदधि),
थोव (स्तोक), जुवल (युगल), सहोवर (सहोदर) (९) कभी कभी 'म्'='व्' :
हणुव (हनुमत्), पणवेप्पिणु (प्रणम्य), धरेवि (धरेमि), उज्जव (उद्यम)
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