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________________ ४८ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र [ ३४ ] धन्यास्त एव भुवनाधिप ! ये त्रिसन्ध्य-- माराधयन्ति विधिवद् विधुतान्यकृत्याः । भक्त्योल्लसत्पुलक - पक्ष्मल - देह - देशाः, पादद्वयं तव विभो ! भुवि जन्मभाजः ॥ हे त्रिभुवन के स्वामी ! संसार के वे ही प्राणी धन्य हैं, जिनके शरीर का रोम-रोम आपकी भक्ति के कारण उल्लसित एवं पुलकित हो जाता है और जो दूसरे सब काम छोड़कर आपके चरण-कमलों की विधि-पूर्वक त्रिकाल उपासना करते हैं ! [ ३५ ] अस्मिन्नपारभव-वारिनिधौ मुनीश ! मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि । आकणिते तु तव गोत्र - पवित्र - मंत्र, किं वा विपद्-विष-धरी सविधं समेति ॥ हे मुनीन्द्र ! इस अपार संसार-सागर में परिभ्रमण करते हुए अनन्त-काल हो गया, परन्तु मालूम होता है कि आपका पवित्र नाम कभी भी मुझे श्रुतिगोचर नहीं हुआ अर्थात् मैंने कभी अपने कान से सुना नहीं। क्योंकि यदि कभी आपके नाम का पवित्र मंत्र सुनने में आया होता, तो फिर क्या यह विपत्तिरूपी काली नागिन मेरे पास आती ? कभी नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibra
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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