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________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र ४७ नहीं बिगाड़ा, प्रत्युत उसको ही कर्मों की मार से घायल कर दिया, क्षत-विक्षत कर दिया । श्लोक में 'दुस्तरवारि' शब्द दो बार आया है। पहले का अर्थ है-कठिनाई से तरने योग्य जल, दुस्तर + वारि । दूसरे का अर्थ है-खराब तलवार, दुस + तरवारि । [ ३३ ] ध्वस्तोर्ध्व - केश-विकृताकृति-मर्त्यमुण्ड प्रालम्बभद-भयद-वक्त्र-विनिर्यदग्निः । प्रेतवजः प्रति भवन्तमपीरितो यः, सोऽस्याऽभवत्प्रतिभवं भव-दुःख-हेतुः ॥ हे भगवन् ! दुष्ट कमठासुर ने आपको पथ-भ्रष्ट करने के लिए अत्यन्त निर्दय पिशाचों के दल भी भेजे। कैसे थे वे पिशाच ? जिनके गले में बिखरे केशों और भद्दी आकृति-वाले नर-मुण्डों को मालाएँ पड़ी हुई थीं और जो अपने भयानक मुख से निरन्तर आग उगल रहे थे। परन्तु, हे प्रभो ! वे भयंकर पिशाच आप पर कुछ भी प्रभाव न डाल सके, प्रत्युत वे उसी कमठ के लिए प्रत्येक भव में भयंकर दुःखों के कारण बने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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