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कल्याण मन्दिर स्तोत्र
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प्रभु के तो सान्निध्य-मात्र से ही राग-भाव दूर हो जाता है । जो भी साधक प्रभु के चरणों में आया, संसार का राग-भाव त्याग कर वीतराग बन गया । वीतराग के पास आकर भला कौन वीतराग नहीं हो जाता ?
आचार्यश्री का गम्भीर अभिप्राय यह है कि भगवान् के पास रहकर अशोकवृक्ष वीतराग कैसे हो गया ? यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है ? वह अशोकवृक्ष तो अचेतन था, यदि वह राग छोड़कर वीतराग बन गया तो क्या हुआ, भगवान् के पास आ कर तो बड़े-बड़े सचेतन तार्किक भी अपना मत- पन्थ आदि का एवं सांसारिक वासनाओं का राग त्यागकर, वीतराग भाव की उपासना करने लगते हैं, वैराग्य भाव धारण कर लेते हैं । सचेतन को समझाना कठिन है । अचेतन को तो हर कोई बदल सकता है । सचेतन को केवल ज्ञानी ही बदल सकते हैं । यह 'भा-मण्डल' नामक छठे प्रातिहार्य का वर्णन है । [ २५ ]
प्रमादमवधूय भजध्वमेनमागत्य निर्वृतिपुरीं प्रति सार्थवाहम् । देव ! जगत्त्रयाय,
मन्ये नदन्नभिनभः सुर- दुन्दुभिस्ते ||
भो भोः
एतन्निवेदयति
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हे देव ! आकाश में सब ओर गर्जन करती हुई देवदुन्दुभि तीन जगत् को इस प्रकार सूचना देती है कि'ये भगवान् पार्श्वनाथ मोक्षपुरी को जानेवाले
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