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कल्याण- मन्दिर स्तोत्र
सार्थवाह हैं, नेता हैं । अतएव हे मोक्षपुरी की यात्रा करने वाले मुमुक्षु यात्रियो ! आलस्य त्याग कर शीघ्र ही इनकी सेवा में आ कर उपस्थित हो जाओ !'
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टिप्पणी
'दुन्दुभि' का शब्द ध्वनि मात्र है, भाषा नहीं है । अतएव वह केवल बजती है, बोलती नहीं है । परन्तु आचार्यश्री की विलक्षण प्रतिभा ने बजने में बोलने की उत्प्रेक्षा की है ? यह मूल श्लोक में कहा जा चुका है ।
यह 'दुन्दुभि' नामक सातवें प्रातिहार्य का वर्णन है ।
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उद्योतितेषु
भवता भुवनेषु नाथ ! तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः । मुक्ताकलाप - कलितोल्लसितातपत्र
व्याजात् त्रिधा धृततनुर् ध्रुवमभ्युपेतः ॥
हे नाथ ! जब आपने अपने दिव्य-ज्ञान के प्रकाश से तीन जगत् को उद्योतित - प्रकाशित कर दिया, तब बेचारे चन्द्रमा का अपना प्रकाश - कर्तृत्वरूप अधिकार छिन गया ।
अब चन्द्रमा क्या करता ? वह तारा मण्डल को साथ लेकर मोतियों के समूह से युक्त एवं सुशोभित तीन श्वेत छत्रों के रूप में तीन शरीर बनाकर आपकी सेवा में ही उपस्थित हो गया ।
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