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________________ कल्याण- मन्दिर स्तोत्र सार्थवाह हैं, नेता हैं । अतएव हे मोक्षपुरी की यात्रा करने वाले मुमुक्षु यात्रियो ! आलस्य त्याग कर शीघ्र ही इनकी सेवा में आ कर उपस्थित हो जाओ !' ३४ टिप्पणी 'दुन्दुभि' का शब्द ध्वनि मात्र है, भाषा नहीं है । अतएव वह केवल बजती है, बोलती नहीं है । परन्तु आचार्यश्री की विलक्षण प्रतिभा ने बजने में बोलने की उत्प्रेक्षा की है ? यह मूल श्लोक में कहा जा चुका है । यह 'दुन्दुभि' नामक सातवें प्रातिहार्य का वर्णन है । [ २६ ] उद्योतितेषु भवता भुवनेषु नाथ ! तारान्वितो विधुरयं विहताधिकारः । मुक्ताकलाप - कलितोल्लसितातपत्र व्याजात् त्रिधा धृततनुर् ध्रुवमभ्युपेतः ॥ हे नाथ ! जब आपने अपने दिव्य-ज्ञान के प्रकाश से तीन जगत् को उद्योतित - प्रकाशित कर दिया, तब बेचारे चन्द्रमा का अपना प्रकाश - कर्तृत्वरूप अधिकार छिन गया । अब चन्द्रमा क्या करता ? वह तारा मण्डल को साथ लेकर मोतियों के समूह से युक्त एवं सुशोभित तीन श्वेत छत्रों के रूप में तीन शरीर बनाकर आपकी सेवा में ही उपस्थित हो गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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