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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
कर्मोदय की अशुद्धता के कारण से है। आप स्वभाव-परिणति में हैं, अतः शुद्ध हैं । और मै विभाव-परिणति में हूँ, अतः आ हूँ। परन्तु यदि मैं आपके मार्ग पर चलने का प्रयत्न करू और विभाव-परिणति का परित्याग कर स्वभाव-परिणति को स्वीकार करू, तो यह मेरी आज की अशुद्ध आत्मा भी शुद्ध हो जाए, जिन बन जाए।'
आचार्यश्री ने पानी को अमृत बनाने का उदाहरण बहुत ही मौलिक दिया है। जब कोई मंत्रवादी साधारण जल को भी मंत्र से अभिमंत्रित करके किसी विष-ग्रस्त रोगी को प्रदान करता है, तो वह अमृत ही बन जाता है, विष-विकार को दूर कर देता है। मंत्र की बात को भी दूर रखिए, यदि साधारण जल को भी अमृत-बुद्धि से उपयोग में लाया जाए, तो वह भी विष-विकार को दूर कर देता है । भावना का आत्मा पर बड़ा प्रभाव पड़ता है।
[ १८ ] त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि,
ननं विभो हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । कि काचकामलिभिरीश सितोऽपि शंखो,
नो गृह्यते विविध-वर्ण-विपर्ययेण ॥ हे प्रभो ! दूसरे मतों के मानने वाले लोगों ने भी आप वीतराग देव को ही अपने हरि-हर आदि देवताओं के रूप में स्वीकार कर रखा है।
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