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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
जिस मनुष्य को पीलिया-रोग हो जाता है, क्या वह बिल्कुल स्वच्छ श्वेतवर्ण के शंख को भी वर्ण-विपर्यय के द्वारा नीला, पीला आदि नहीं देखने लगता है ? अवश्य देखने लगता है।
टिप्पणी ___ आचार्यश्री कहते हैं कि-हे भगवन् ! अखिल संसार में एकमात्र देव आप ही हैं, और कोई देव है ही नहीं ! दूसरे मतावलम्बी जो हरि-हर आदि देवताओं को मानते हैं, वे भी भ्रान्ति में हैं। आप ही को हरि-हर आदि की बुद्धि से पूजते हैं। आप ही को यह हरि-विष्णु हैं, यह हर-महादेव हैं, इत्यादि रूप से मानते हैं।
प्रश्न होता है कि कहाँ वीतराग देव आप और कहाँ रागीद्वषी हरि-हर आदि देव ! भला वीतराग को रागी-द्वेषी-रूप में कैसे मानने लगे ? इतनी बड़ी भ्रान्ति कैसे हो गई ?
आचार्यश्री उत्तर देते हैं कि जिस प्रकार किसी मनुष्य को पीलिया रोग हो जाता है, तो वह सफेद शंख को भी पीला ही समझता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय से अन्य मताबलम्बी भी आपको हरि-हर आदि रागी-द्वेषी देवता के रूप में पूजते हैं । मिथ्यात्व का विकार बड़ा उग्र एवं भीषण होता है।
[ १९ ] धर्मोपदेशसमये सविधानुभावा
दास्तां जनो भवति ते तरुरप्यशोकः। अभ्युदगते दिन-पतौ समहीरुहोऽपि, __कि वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः॥
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