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कल्याण-मन्दिर स्तोत्र
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रूप में ध्यान करते हैं, तो उनकी वही साधारण आत्मा भी आप जैसी ही प्रभावशाली बन जाती है, परमात्मा हो जाती है।
पानी को भी यदि सर्वथा अभेदबुद्धि से अमृत समझ कर उपयोग में लाया जाय, तो क्या वह अमृत नहीं हो जाता है और विष-विकार को दूर नहीं कर देता है ?
टिप्पणी
प्रस्तुत श्लोक में शुद्ध निश्चय दृष्टि का उल्लेख किया गया है। जैन-धर्म निश्चय-प्रधान धर्म है। वह संसार की समस्त आत्माओं को अन्तरंग ज्योति के रूप में भगवत्स्वरूप ही मानता है। 'जिन' पद और 'निज' पद में केवल ब्यंजनों का ही परिवर्तन है, स्वर वे ही हैं। इसी प्रकार जो आत्मा निज है, वही जिन है। केवल कर्म-पर्याय को बदल कर शुद्ध पर्याय में आना आवश्यक है।
आचार्यश्री कहते हैं जो साधक अपने आपको आप से अभिन्न अनुभव करता है-अपने आपको परमात्मस्वरूप समझता है, वह आपके समान ही शुद्ध हो जाता है, परम पवित्र परमात्मा बन जाता है । अतएव साधक को निरन्तर चिन्तन करना चाहिए कि-'भगवन् ! जैसी परम पवित्र सर्वथा शुद्ध आत्मा आपकी है, ठीक वैसी ही मेरी आत्मा भी विशुद्ध है। निश्चयनय के विचार से आपमें और मुझमें अणुमात्र भी अन्तर नहीं है। यह जो कुछ भी वर्तमान में अन्तर दिखाई देता है, यह सब
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