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________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र फिर भी हरे हो जाएँ, परन्तु हिम-दग्ध वृक्ष कभी भी हरे नहीं हो पाते । अस्तु, शीतल क्षमा की शक्ति ही महान् है । [ १४ ] त्वां योगिनो जिन ! सदा परमात्मरूप मन्वेषयन्ति हृदयाम्बुज-कोश-देशे। पूतस्य निर्मलरुचेर् यदि वा किमन्य दक्षस्य संभवि पदं ननु कणिकायाः ॥ हे जिन ! आप परमात्मस्वरूप हैं, कर्म-मल से रहित शुद्ध अक्ष-आत्मस्वरूप हैं। अतएव बड़े-बड़े योगी लोग अपने हृदय-कमल की कणिका में आपको खोजते हैं, आपका ध्यान करते हैं। जिस प्रकार कमल के अक्ष-बीज का स्थान कमल की कर्णिका है, उसी प्रकार आप भी जब कर्म-मल से रहित होकर पवित्र निर्मल कान्तिवाले अक्ष-परमात्मा बन गए तो आपका स्थान भी हृदय-कमल की कर्णिका को छोड़कर अन्यत्र कहाँ हो सकता है ? अक्ष तो कमल की कणिका में ही मिलेगा न ? टिप्पणी प्रस्तुत श्लोक में आचार्य प्रश्न उठाते हैं कि योगी लोग भगवान् का ध्यान हृदय-कमल में क्यों करते हैं ? वहीं क्यों खोजते हैं ? कमल में तो अक्ष-कमलगट्टा रहता है, वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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