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________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र भगवान की खोज कैसी ? आचार्यश्री स्वयं उत्तर देते हैं कि भगवान् भी तो अक्ष ही हैं । अतः योगी लोग समझते हैं कि वे भी कहीं न कहीं कमल में ही मिलेंगे। साधारण कमल में न मिलेंगे, तो चलो हृदय-कमल में ही खोजें। आखिर अक्ष मिलेगा कमल में ही। श्लोक में आये हुए 'अक्ष' शब्द के 'कमलगट्टा' और 'आत्मा' इस प्रकार दो अर्थ होते हैं । 'अक्ष्णाति-जानाति इति अक्ष:आत्मा।' [ १५ ] ध्यानाज्जिनेश ! भवतो भविनः क्षणेन, देहं विहाय परमात्म-दशां व्रजन्ति । तीवानलादुपलभावमपास्य लोके, चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥ हे जिनेन्द्र ! विशुद्ध हृदय से आपका ध्यान करने से, संसार के भव्य जीव, शीघ्र ही इस शरीर को छोड़कर शुद्ध परमात्म-दशा को प्राप्त कर सकते हैं। संसार में हर कोई देख सकता है कि प्रचण्ड अग्नि का सम्पर्क पाते ही सुवर्ण-धातु अपने पाषाण आदि पूर्व मिश्रित रूप को छोड़कर शीघ्र ही शुद्ध सुवर्णत्व-दशा को प्राप्त हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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