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________________ कल्याण-मन्दिर स्तोत्र १५ प्रभो ! आपने क्रोध को तो पहले ही नष्ट कर दिया था, तब फिर कर्मशत्रुओं को कैसे नष्ट किया ? क्योंकि बिना रोष के भला कोई किसी को कैसे नष्ट कर सकता है ? नहीं कर सकता । अहो, मैं भूल रहा हूँ ! क्रोध की अपेक्षा क्षमा की शक्ति ही तो बहुत बड़ी है । आग की अपेक्षा हिम-वर्फ की शक्ति ही तो महान् है । हम देखते हैं कि जब शीतकाल में अत्यन्त शीत होने के कारण बिल्कुल ठंडा हिम- पाला पड़ता है, तब हरे-भरे वृक्षोंवाले सघन वन भी जलकर ध्वस्त हो जाते हैं । टिप्पणी संसार में देखा जाता है कि प्रायः क्रोधी मनुष्य ही अपने शत्रुओं का नाश करते हैं । जो लोग क्षमाशील होते हैं, उनसे किसी का कुछ भी अपकार नहीं होता । इसी बात को लेकर आचार्य आश्चर्य करते हैं कि - 'भगवन् ! आपने क्रोध को तो बहुत पहले ही, आध्यात्मिक विकासक्रम के अनुसार नववें गुणस्थान में ही नष्ट कर दिया था, फिर क्रोध के अभाव में चौदहवें गुणस्थान तक के कर्म रूपी शत्रुओं को कैसे परास्त किया ? परन्तु श्लोक के उत्तरार्द्ध में वर्फ का उदाहरण स्मृति में आते ही आचार्य का समाधान हो जाता है। बर्फ कितना अधिक ठंडा होता है, पर हरे-भरे वनों को किस प्रकार जला कर नष्ट कर डालता है ? आग से जले हुए वृक्ष तो संभव है, समय पा कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001381
Book TitleKalyan Mandir
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1980
Total Pages101
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Stotra, P000, & P010
File Size3 MB
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