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________________ चारित्र्य सुवास २७ ईर्ष्या करते, और लोकदृष्टिमें वे हलके दिखाई दें ऐसा कुछ करनेके प्रयत्नमें ये ईर्ष्यालु लोग लगे रहते थे । एक दिन इन लोगोंने पादरक्षकोंका ( जूतोंका) हार बनाकर उस भक्तकी कुटीरके द्वारपर लटका दिया। दूसरे दिन भक्तराजने यह देखा तब वे निम्नलिखित श्लोक बोले : कर्मावलम्बकाः केचित् केचिज्ज्ञानावलम्बकाः । वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बकाः ॥ अर्थात् कुछ लोग निष्काम कर्मयोगका आश्रय करते हैं और कुछ ज्ञानयोगका आश्रय करते हैं पर हम तो भगवानके दासोंके पादरक्षकोंका अवलम्बन लेते हैं। जब अपने प्रपंचकार्यका सच्चे भक्तपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तब वे निराश हुए। उलटे, इस प्रसंगसे भक्तके अन्तरमें भगवद्भक्तोंके प्रति भावना अधिक बढ़ी हुई देखकर इन ईर्ष्यालु लोगोंकी आँखें खुल गयीं। वे लोग सच्चे भक्तके घर गये और उनके पैरोंमें गिरकर अपने दुष्कृत्यके लिए क्षमा प्रदान करनेकी प्रार्थना की। संतके हृदयमें सच्चे भक्तके प्रति कैसा अहोभाव होता है उसका यह प्रसिद्ध दृष्टान्त है। राजाकी गुणग्राहकता जब मालवाकी गद्दीपर राजा भोजका नया-नया राज्याभिषेक हुआ था उस समयकी यह बात है । २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001380
Book TitleCharitrya Suvas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabulal Siddhsen Jain
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size4 MB
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