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२ आकाशगामी विमान बनाने का विज्ञान, ३ राधावेध कर सके ऐसा धनुर्वेद का ज्ञान, ४ एवं विषनाशक गारुड शास्त्र का ज्ञान (दे० पृ० ७० पं०६-७)।
आज भी स्त्री की प्रथम प्रसूति पिता के घर होती है। इस प्रथा का उल्लेख इस ग्रन्थ में इस प्रकार है -" पढम किर नारी पिइघरे पसवइ त्ति (पृ०१२ पं० १९ ) । इससे हमारे समाज की प्राचीन परम्परा जानी जा सकती है।
नव परिणीत वधू को प्रारंभ में श्वशुरघर में आनेका आनन्द तो होता है साथ ही साथ पितृगृह छोडने का दुःख भी । ऐसे दुःस्व को भुलाने के लिये यहां एक स्थान पर नायक अपनी पत्नी के साथ उद्यानक्रीडा करता है, आश्चर्यकारक स्थानों को बताता है, पत्रछेद्यादि कलाकृतियों बनाता है, तथाविध नृत्य आदि से आनन्द लेता है और प्रहेलिकाओं द्वारा विनोद करता है (देखिये पृ. १३० पं० ८ से पृ० १३१ पं० ६)।
आज प्राचीन परम्परा के अनुसार जो शाही बनाई जाती है उस में काजल और हीराबोळ समप्रमाणमें लिया जाता है। यह पद्धति प्रन्थकारके समय में भी होगी यह ग्रन्थगत एक प्रहेलिका से ध्वनित होती है। (दे० पृ० १३० गा०१०३)।
इस ग्रन्थ के पृ० १३५ गा० २१३ के पूर्वार्द्ध में एक उक्ति आई है-"को जजरेइ कुंभे जउविणिओयत्थमेथ जाणतो?" अर्थात् लाखका प्रयोग करने के लिए कौन घडे को जर्जरित करेगा। इस उक्ति से यह जाना जाता है कि प्राचीन समय में फूटे हुए घडे या बर्तन को सांधने के लिए लाख का उपयोग किया जाता था।
काष्ठनिर्मित देवमूर्ति का उल्लेख भी इस ग्रन्थ में हुआ है (दे० पृ० १५७ पं० २८-२९)।
विशिष्ट कथक - कथा कहने वाले को कथा सुनने के रसिक राजाओं की ओर से राज्याश्रय भी मिलता.था (देखो पृ० ९० पं०१०)।
स्वर्णभूमि में मजदूरों को वेतन में स्वर्ण मिलता था। यह उल्लेख भी इस में आया है (पृ० २१० पं० २-३)। स्वर्णसिद्धि के रस प्रयोगका भी इसमें उल्लेख है (पृ० १८३ पं. १९-२०)। वमन करने के लिए मदनफल का उपयोग किया जाता था (पृ० ४२ गा० २६३)। मांव के समस्त रोगों को नाश करनेवाली गुटिका का उल्लेख पृ० ११२ पं० २० में है।
समुद्र में जहाज टूट जाने के बाद काष्ठ आदि की सहायता से जो प्रवासी समीप के टापू में पहुंच जाता था वह प्रवासी, आने जाने वाले सागरयात्रियों की जानकारी के लिये सागर के तट पर एक चिह्न करता था। ताकि उस चिह्न को देखकर आने जाने वाले सागरयात्री यह जान जाय की इस टापू में कोई यात्री फंसा पडा है। प्रवासी उसके बचाव के लिए वहां पहुंचते थे और उसकी सहायता करते थे। यह वृत्तांत इसी ग्रन्थ के पृ०४६ की गा० ३९० में आये हुए भिन्नवाहणियचिंधं -भिन्नवाहनचिह्नम् ' पद से जाना जा सकता है। __हमारे प्राचीन ग्रन्थों में सुरंग-भूगर्भमार्ग का उल्लेख मिलता है। इस ग्रन्थ के पृ० ७२ की छठी पंक्ति में भी यह उल्लेख भाया है।
कपडे की दुकान के आगे वस्त्र का परदा रखने की प्रथा प्राचीन समय में भी थी। इस प्रथा का वर्णन इसी ग्रन्थ के पृ० ८१ की ११ वी पंक्ति में आया है।
इस ग्रन्थ के पृष्ठ १३२ पं० १३ में आये हुए तुरुष्क, वाल्हीक और सिन्धुवार देश के घोडे के व्यापारियों के उल्लेख से यह जाना जाता है कि इन तीन देशों के घोडे उंची जाति के होने चाहिये ।
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