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________________ ૨૮ के मूलभाग के पास निधि होती है । शाखा का छेद करने पर यदि लाल रस निकले तो उस स्थान में रत्न होंगे, पीला रस निकले तो सोना होगा और श्वेत रस निकले तो चांदी होगी ( देखिये पृ० ११९ पं. २४-३१)। लाल दूध वाली थूहर की आग में तथाविध मंत्रप्रयोग से जीवित पुरुष का होम करके सुवर्ण पुरुष बनाने का उल्लेख भी इस ग्रन्थ में हुआ है (पृ० २२१ पं० २२ से २७)। मणि रत्नों का प्रभाव भी इस ग्रन्थ में उल्लिखित है - जैसे मणिरत्नों के प्रभाव से विष का आवेग नाश हो जाता है (दे० पृ० ८३ पं० १७)। मणियों के प्रभाव से राज्यवैभव एवं इच्छित सामग्री मिलती है (दे० पृ० ९१ पं०६-८)। ' सुख समृद्धि देनेवाली दिव्य औषधि का उल्लेख भी यहाँ मिलता है (देखो पृ० १२१ पं० ११ से १६ ) । तथा दैवी योगाञ्जन से स्त्री की उंटनी और उंटनी की स्त्री बन जाती है। यह घटना ९३ ३ पृष्ठ की ६ से ८ पंक्ति में, ९६ वें पृष्ठ की १५ वीं पक्ति में, एवं ९७ वें प्रष्ठ की ४-५ वी पंक्ति में मिलती है। इस में यक्ष पूजा का उल्लेख भी आया है (देखो पृ० १६५ पं० १३ ) तथा योग्य जमाई प्राप्त करने के लिए यक्ष की आराधना का प्रसंग भी इस में आया है (देखो पृ० ५४ गा० ६३६)। . सर्वत्याग करने की वृत्तिवाला सूरसेन राजा अपने पुत्र चन्द्रसेनकुमार को इस प्रकार की शिक्षा देता है - " वत्स! यह राज्य बिना रस्सी की जेल है, बिना दोरी का बन्धन है, बिना मालिक की पराधीनता है, बिना मद्य का नशा है, बिना आंख का अन्धत्व है, अतः राज्य ही सब कुछ है यह नहीं मान लेना चाहिए। धर्म में अनुराग रखना, कुलाचार का उल्लंघन मत करना, नीतिमार्ग को मत छोडना, शिष्टलोगों को पीडित मत करना, प्रजावर्ग का अपमान मत करना, वफादार नोकरों का अनुवर्तन करना-उनके कथन पर ध्यान देना, बड़ों की बात मानना, अमात्यों के वचन के अनुसार चलना तथा जिस में यश मिलता हो वैसा काम करना ।" इस उद्धरण में सत्ता या अधिकार में रही हुई जबाबदारी और दूषणों का अतिसंक्षेप में वर्णन दिया है। शासक या अधिकारी वर्ग को कैसा बरतना चाहिए? उस सम्बन्ध में यह अवतरण प्रेरणाप्रद है। शासको के कर्तव्य को बताने वाली ऐसी और इससे भी विस्तृत सामग्री प्राचीन ग्रन्थों में मिल सकती है। २२० वें प्रष्ठ में आई हई २३९ वी गाथा में यह कहा है कि जिसके पास जितना कोड चलनी द्रव्य हो वह अपने मकान पर उतनी ही ध्वजाएँ रख कर अपना गौरव मानता और मनवाता था। 'अपनी बाह्य विशिष्ट पहचान होनी चाहिए ' इस प्रकार की धनवानों की अभिलाषा इस में व्यक्त होती है। __इस ग्रन्थ के एक स्थल में स्त्रियों के १४ आभरणों का उल्लेख आया है " दिनं तिलयचउद्दसमाभरणं सुबहुं च महग्घमंबरं सुंदरीए" (पृ० ११८ पं० ३) । जन्म के पूर्व ही सगाई करने की प्रथा आज प्रायः लुप्त है। प्राचीन समय में शिष्ट समाज में भी यह प्रथा कहीं कहीं प्रचलित थी । इस ग्रन्थ के पृ० १२९ गा० ८६ में इस प्रथा का उल्लेख मिलता है। योग्य पति की पसन्दगी के लिए युवकों के चित्र नायिकाओं को बताये जाते थे। इस प्रथा का वर्णन अन्य कथाग्रन्थों की तरह इस ग्रन्थ में भी आया है, (देखिये पृ० ६२ गा० २५ तथा पृ० ६६ पं० २७)। ___ इस ग्रन्थ के एक कथाप्रसंग में यह भी आया है कि एक राजकुमारी ने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो व्यक्ति चार विद्याओं में से कम से कम एक विद्या में भी निपुण होगा उसी के साथ विवाह करूंगी। वे चार विद्याएं ये थीं -१ ज्योतिष, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001370
Book TitlePuhaichandchariyam
Original Sutra AuthorShantisuri
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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