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________________ २७ प्राचीनकाल में भारत के विविध प्रदेशों में तापसों के आश्रम थे । उन आश्रमों में त्यागी और संयमी तापस रहते थे। धर्मानुष्ठान, तपस्या और ध्यान आदि उनकी दिनचर्या थी। तदुपरान्त ये माश्रम, प्रवासियों को अनेक प्रकारसे सहायक हो सके वैसी उच्च कक्षाकी सामाजिक संस्था जैसे थे। यह हकीकत प्रस्तुत ग्रन्थ के तीन स्थानों पर उल्लिखित तापसाश्रमों के वर्णन से जानी जा सकती है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अनेक स्थानों पर जैन परम्परा के अनुसार व्रतनियमों का एवं उनके शुभ फलोका निरूपण किया है। यह एक वास्तविक होने पर भी तथा ग्रन्थकार के स्वयं एक जैनाचार्य होने पर भी उन्होंने प्रस्तुत तापसाश्रमों एवं तापस-तापसियों का गौरवशाली निरूपण करके अपनी वास्तवदर्शी उदात्तता का परिचय दिया है, ऐसा कह सकते हैं । इस ग्रन्थ में तापसाश्रमों के उल्लेख १४१, १६७, और १९२ वें पृष्ठोमें आते हैं। उनमें १४१ वें पृष्ठ में तापसों का संक्षिप्त परिचय भी मिलता है। वह इस प्रकार है - " इस आश्रम में करुणावतवाले, ब्रह्मचारी देश-पुर-गाम-घर-नारी-स्वजन-धन-धान्य और स्नेह से सर्वथामुक्त, महानुभाव, निरारंभी, असि, मषी, कृषि और वाणिज्य के त्यागी, फलाहारी, मानापमान में समान ऐसे मुनि रहते हैं और लोक में ये मुनि ही सुखपूर्वक रहते हैं । " १६७ और १९२ वें पृष्ठ में जिन तापसाश्रमों को बताये हैं उनमें सात्विक, सच्चरित्र तापस-तापसियाँ रहती थी, ऐसा निर्देश है। दीन दुःखी और विविध कारणों से परितप्त जनों को ये आश्रम सहायक होते थे। तथा तापसाश्रमों में प्रवासियों को जीवन को संस्कारित करने की शिक्षा भी मिलती थी। भारतीय प्राचीन-प्राचीनतम समग्र ग्रन्थों में से तापसाश्रम सम्बन्धित लभ्य सामग्री को संप्राप्त कर यदि एक ग्रन्थ तैयार किया जाय तो वह हमारे सामाजिक और पारमार्थिक प्राचीन पक्ष का एक उल्लेखनीय इतिहास गिना जायगा। किसी भी संप्रदाय के विद्यासिद्ध धर्मगुरुका जीवन और उनकी सिद्धि परोपकार के लिये ही होती है। यह बात भूततंत्र नामके विद्यासिद्ध (देखो पृ० ९५ पं० १६) एवं मंत्रसिद्ध (देखो पृ० १२२ पं० १-१३) तथा सिद्धपुत्र (दे० पृ. १६६) के कथाप्रसंग से जानी जा सकती है। साथ ही साथ जैसे आ क्ति सज्जन या साधु के वेश में तरह तरह के स्वांग रचते हैं उसी तरह प्राचीनकाल में भी खतरनाक चालबाज व्यक्ति अपनी धूर्तता को छिपाने के लिए साधुवेष का आश्रय लेता था। यह घटना प्रस्तुत ग्रन्थ के कथा प्रसंगों से जानी जा सकती है (देखो पृ० ६८ पं० १३, पृ० ९३ पं० १५, पृ० ११८ पं० २ और ७, पृ० १२१ पं० २५, पृ० १२६-२७ और पृ० १५८)। इस ग्रन्थ में दिव्य विद्याओं के नाम इस प्रकार मिलते हैं - वेउन्वियविजा-वैक्रियविद्या (पृ०८४ पं० १६), अवराइया विजा-अपराजिता विद्या (पृ०१०० पं०१४ तथा प्र० १६७ पं. १), महावेयालिणी विज्जा-महावेतालिनी विधा (पृ०१४४ पं० २६), रूवपरावत्तिणी विजा-रूपपरावर्तिनी विद्या (प्र० १५७ पं०३), पडविजा - पटविद्या (पृ० १६७ पं०१४) और अवसोयणी विजा-अवस्वापिनी विद्या (पृ० ५० ५० ४)। यहाँ इन्द्रजाल प्रयोग के दो उदाहरण मिलते हैं । जैसे १. इन्द्रजाल के प्रयोग से नागकन्या को राजसभा में उपस्थित किया गया (देखो पृ० १२६ पं०६)। २. इन्द्रजालविद्या से सुन्दर तरुणी बनाई गई (पृ० २१० पं० ४)। स्वरलक्षण का ज्ञाता, गायक व्यक्ति का स्वर सुन करके ही उसको पहचान जाता था। इसका उल्लेखमात्र इस ग्रन्थ में हुआ है (पृ० १२८ पं० ७)। इस प्रन्थ में पलाश वृक्ष को लक्ष्य करके भूमिगत खजाना जानने का उपाय भी लिखा है। वह इस प्रकार हैयदि पलाश वृक्ष की शाखा में से निकल कर कोई शाखा जमीन में चली गई हो तो उस जमीन के नीचे गई हुई शाखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001370
Book TitlePuhaichandchariyam
Original Sutra AuthorShantisuri
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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