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श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर की प्रन्थमाला के २४ वें प्रन्थाङ्क रूप से प्रकाशित रत्नाकरावतारिका भा० ३ की प्रस्तावना में भारतीय दर्शनों के गहरे चिंतक एवं अभ्यासी पं० श्री दलसुखभाई मालवणिया ने अलग अलग रत्नप्रभसूरियों के उल्लेख किये हैं। इन समस्त रनप्रभसूरियों में से अपभ्रंशभाषानिबद्ध' अंतरंगसंधि' के रचयिता रत्नप्रभसूरि ने प्रस्तुत 'संकेत' रचा हो ऐसा अनुमान होता है । ' अंतरंगसंधि' की वि. सं. १३९२ में लिखी प्रति पाटण-संघवी पाडा के जैन ज्ञान भण्डार में है। उसके अंत में " श्री धर्मप्रभसूरिरत्नप्रभकृतिरिय " ऐसा लिखा है। यहाँ बताई गई गुरुस्तुति के अन्त में उल्लिखित धर्मप्रभरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि यही होने चाहिये। ये धर्मप्रभसूरि, पृथ्वीचन्द्रचरित्रकार शान्तिसूरि के ग्यारहवें पट्टधर हुए हैं इस से उनके शिष्य रत्नप्रभसूरि का समय अनुमानतः विक्रम की १४ वीं शताब्दी होना चाहिए।
अपनी गुरुपरम्परा के अग्रिम आचार्य की प्रासादिक रचना पर 'संकेत' रचनेवाले अन्तरंगसंधि के कर्ता रत्नप्रभसूरि होने चाहिए। यह अनुमान, जब तक अन्य कोई बाधक प्रमाण न मिले तब तक मानना योग्य लगता है।
ग्रंन्थगत सांस्कृतिक सामग्री हमारे प्राचीन ग्रन्थों में यंत्रप्रयोग से क्रिया करने वाले नर नारियों के पुतले, एवं यांत्रिक पशु पक्षियों के उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलते हैं। उसी तरह प्रस्तुत ग्रन्थ के पृ० ८४ की ४४ वीं गाथा में नृत्य करती यांत्रिक पुत्तलिका एवं आपस में लडाई करते यांत्रिक पक्षियों के उल्लेख मिलते हैं । तथा पृ. ८५ गा. ५२-५३-५५ और ५६ में मण्डप में प्रवेश करने वाले को मना करने वाले यंत्रचालित द्वारपाल, मण्डप में प्रवेश करने वाले की पगडी उठाने वाले तोरण पर बैठे हुए यांत्रिक बन्दर, हाथ में पुष्पमाला लेकर मण्डप में धुमती हुई यंत्रचल पुत्तलिका एवं आकाश में उडते हुए यंत्रचल पक्षियों के तथा १९१ वें पृष्ठ की ५-६ पंक्ति में पुष्पांजलि करती हुई, स्नान कराती हुई, चन्दन रस छांटती हुई यंत्रचल पुत्तलिकामो के उल्लेख मिलते हैं। तथा यंत्रप्रयोग से खाली होनेवाली और पुनः भर जानेवाली वापिका का भी उल्लेख यहाँ मिलता है।
उपरोक्त घटना, मात्र प्राचीन कथाप्रन्थों की प्रणालिका का अनुसरण करके ही लिखी गई है ऐसा तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि विक्रम की ११, १२ वीं सदी में ऐसी यांत्रिक चीजें बनाने के प्रमाण मिलते हैं। इस कारण से हमारे ग्रन्थों में लिखी हुई इस प्रकारकी समग्र हकीकत के मूल में वास्तविकता रही हुई है। अतः हमें इसका अनुसंधान करना चाहिए । महाराजाधिराज धाराधिपति भोजदेव.(समय वि०११-१२ वीं सदी) ने अपनी रचना 'शृंगारमंजरी' में अपना यंत्रगृह का वर्णन किया है। उस में मृदंग बजाता हुआ यंत्रपुत्रक, हथेलियों से जल उछालती हुई यंत्रपुत्तलिका, नृत्य करती हुई यंत्रपुत्रिका, गुंजारव करते हुए यंत्र के मकरमिथुन, यंत्रवृक्ष, कृत्रिम बककुटुम्ब, यंत्रचल जलकच्छप मगर आदि के उल्लेख किये हैं। उसी प्रकार यंत्रमानव से भोजदेव अपना परिचय बुलवाता है । इस प्रकार के विविध यंत्र प्रयोगों के जिज्ञासुओं के लिए श्री सिंघी जैन ग्रन्थमाला के ३० वें ग्रन्थाङ्करूप से प्रकाशित शृंगारमञ्जरीकथा पृ. ५ से ७ तक के भागको देखनेका सूचन करता हूँ।
भोजदेव द्वारा लिखे हुए उपरोक्त वर्णन से हमें यंत्रप्रयोगों की वास्तविकता माननी चाहिए। तथा जिसमें पुत्तलिका बोलती है ऐसी बत्तीस पुत्तलिका की वार्ता आदि के मूल में यंत्रप्रयोग था ऐसा कह सकते हैं।
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