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________________ २४ तत्पट्टे श्री() धर्मसिंहः कविकरटमदारम्भसम्मेददक्षो, मुख्यो मोक्षार्थिनां हृच्छमदमकरुणाराशिरासीत् स नूनम् । भून्ज्ञिाने निवासी बुधजनमनसि प्राप्तवासः सदा यः, सर्वज्ञाहप्रणामप्रणन[ ]हृदयः सद्गुरूपास्तिसंस्थः ॥१६॥ धर्मप्रधानः स च विश्वलोके, धर्मप्रभः सूरिरितोदयः स्यात् । चिकित्सया यो क्रिययापिरोगान् , बाह्यान्तरङ्गान् बहुशो निहन्ति ॥१७॥ स्तुति गुरूणां सुगुणैर्गुरूणां, दिनोदये यः पठति प्रमोदात् । तस्यानिशं भक्तितरङ्गमाजो, लक्ष्मीविशाला परिरम्भिणी स्यात् ॥१८॥ उपर बताई गई गुरुस्तुति के तीसरे पद्य में प्रस्तुत ग्रन्थकार का और उनके द्वारा रचे हुए पृथ्वीचन्द्रचरित्र का गौरव किया है। पांचवें पद्य में यहाँ पहले बताये गये पिप्पलगच्छ की स्थापना का उल्लेख है। और छठे पद्य में श्री शान्तिसूरि का सान्निध्य चक्रेश्वरी देवी करती थी वह एवं शान्तिसूरि के अनुग्रह से सिद्धनाम का श्रेष्ठी वंदनीय-आदरणीय-समृद्ध बना था ऐसा वर्णन किया है। यहाँ छंद की मात्रा का मेल बिठाने के कारण पिप्पलगच्छ का श्रीवृक्षगच्छ नाम भी बताया है। शेष पद्यों में अनुक्रम से पट्टपरम्परा दी है। ग्रन्थकार श्री शान्तिसूरिजी, प्रशम के उदाहरणरूप, दाक्षिण्यरूपी जलसमूह के सागरसमान, काव्यरूपी रत्नों के रोहणगिरि ( काव्यरत्नों की खान) क्षमाशील और अमृतसमान बाणी वाले थे। ये विशेषण उनके शिष्य श्री विजयसिंहसूरिजी ने वि. सं. ११८३ में रची हुई श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि की प्रशस्ति में दिये हैं। पृथ्वीचन्द्रचरित्रसंकेत और उसके कर्ता प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित्र में आनेवाले अनेक दुर्गम शब्दों एवं उनके संदर्भो के अर्थों को जानने के लिए अति मर्यादित प्रमाण में यह 'संकेत' रचा गया है। प्राकृत भाषा के अभ्यासियों के लिए पृथ्वीचन्द्रचरित्रगत प्रायः सभी क्लिष्ट शब्दों के अर्थ को समझने के लिए यह लघुकृति पर्याप्त है। इस संकेत की मात्र एक ही प्रति मिली है । जिसका परिचय आगे दिया है। प्रस्तुत सम्पादन में उपयुक्त प्रतियों में से तीन प्रतियां प्राचीनतम है। उसमें 'खं१' प्रति तो ग्रन्थकार शान्तिसूरि के शिष्य श्री मुनिचंद्रमुनि की लिखी हुई प्रति की परम्परा की है ! इस कारण से कभी कभी यहाँ मूलग्रन्थ में 'संकेत' कार द्वारा किये हुए अर्थ के अनुसार के मूलशब्द को प्राधान्य नहीं दिया । साथ ही साथ 'संकेत' कार सम्मत मूलपाठ के बदले यहाँ मूलवाचना में स्वीकृत प्राचीनतम प्रतियों का पाठ सम्पूर्ण संगत और मौलिक है यह भी एक हकीकत है। ऐसे चार स्थान नीचे देता हूँ १. पृ० १ गा० १ में · कुवलयभूसणमणुन्नसामोदय' के स्थान पर 'संकेत' में 'कुवलयभूसणमणन्नसाओदयं' पाठ के अनुसार अर्थ किया है । यहाँ 'संकेत' जैसा मूलपाठ किसी प्रति ने नहीं दिया है। 'जे' प्रति की टिप्पणी में मूल में स्वीकृत, प्रतियों के पाठ का अनुसरण करके अर्थ बताया है। ___२. पृ० ३ पं० १० 'वित्थरियसरस्वंसहरिसोहा' के स्थान पर 'संकेत' में 'वित्थरियसकलवंसहरिसोहा' पाठ के अनुसार अर्थ किया है। यहाँ 'संकेत' जैसा मूलपाठ किसी भी प्रति ने नहीं दिया है। यहाँ मूल में स्वीकृत प्रतियों के पाठ की संगति बिलकुल असंदिग्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001370
Book TitlePuhaichandchariyam
Original Sutra AuthorShantisuri
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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