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________________ १६ गुणसुन्दरी की कथाएँ भी है। इस समग्र कथा की कथावस्तु उपदेशपद में भी है (देखिये उपदेशपद भा० २, गा० ७२८, पत्र ३१९ से ३२०)। ३. प्रस्तुत प्रन्थ के ६४ वें पृष्ठ की २४ वीं पंक्ति से प्रारंभ होकर ७८ वें पृष्ठ की १४ वी पंक्ति में पूर्ण होनेवाले 'सुयमिहुणकहाणय-शुकमिथुनकथानक' की कथावस्तु संक्षिप्त रूप से उपदेशपद में है ( देखिये उप० प० भा० २, गा. ९७२ से ९८६, पत्र ३९७-९८)। ४. प्रस्तुत ग्रन्थ के १३३ से १३६ वें पृष्ठ तक में ईश्वरमुनिद्वारा कही हुई अपनी पूर्वभव सहित भात्मकथा है। उस में १३४ वें पृष्ठ की २० वी पंक्ति से प्रारंभ होकर १३६ वें पृष्ठ की पांचवीं पंक्ति में पूर्ण होनेवाला 'आरोग्यद्विजकथानक' की कथावस्तु उपदेशपद में है (देखिये उपदेशपद मा० २, गा० ५३६ से ५४०, पत्र २६६)। ५. प्रस्तुत ग्रन्थ के ८९ वें पृष्ठ की १६ वी पंक्ति से प्रारंभ होकर पृ० १०२ की १० वी पंक्ति में पूर्ण होनेवाला 'रयणसिहकहाणय-रत्नशिखकथानक' का उपदेशपद में केवल उदाहरण के रूप में ही उल्लेख हुभा है (देखिये उपदेशपद भा० २, गा० १०३१, पत्र ४२०)। इस कथानक की कथावस्तु अन्यान्य ग्रन्थों में से या मौखिक परम्परा के माधार से पृथ्वीचन्द्रचरित्रकार को मिली होगी ऐसा केवल अनुमान करसकते हैं। उपर बताये अनुसार प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित्र की मूलकथा और कतिपय अन्तर कथाओं की कथावस्तु जिस प्रकार उपदेशपद में प्राप्त होती है उसी प्रकार अन्यान्य प्राचीनतम ग्रन्थों का अन्वेषण किया जाय तो जिसे प्रस्तुत चरित्र का पूर्वस्रोत कहा जाय वैसी सामग्री का प्राप्त होना असंभव नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रभाव प्रस्तुत ग्रन्थ की कथावस्तु का पूर्वस्रोत चाहे जितना भी उपलब्ध हो तो भी यहाँ जैसा कि हमने पहले कहा है वैसा, इस ग्रन्थ की रचनाशैली ही ऐसी है जो अनेकविध दृष्टि से अपनी विशेषता रखती है। इसी वजह से ही आ० श्री मुनिचन्द्रसरिजी ने अपनी उपदेशपद को टीका में प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित्र की कथाओं को अक्षरशः स्वीकृत की है। अलबत्ता, उन्होंने अपनी टीका के उन उन स्थानों में या टीका के आदि अन्त में श्री शान्तिसूरिजी का अथवा उनके पृथ्वीचन्द्रचरित्र का किश्चित् भी इशारा नहीं किया। वि० सं० ११६१ में रचे हुए पृथ्वीचन्द्रचरित्र के तेरह वर्ष के बाद यानी कि वि० सं० ११७४ में आ० श्री मुनिचन्द्रसूरिजी ने उपदेशपदटीका की रचना की है। उससे यह सहज स्पष्ट हो जाता है कि उपदेशपदटीका में आनेवाली कतिपय कथाएँ पृथ्वीचन्द्रचरित्र में से ही अक्षरशः ली गई हैं । वें स्थान निम्न हैं १. उपदेशपदटीका भा० २ के ३४१ ३ पत्र की दूसरी पृष्ठिका से प्रारंभ होकर ३५६ ३ पत्र की प्रथम पृष्ठिका में पूर्ण होनेवाले 'शंख-कलावतीनिदर्शन ' में आया हुआ समग्र पद्यविभाग प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित्र का ही है । अलबत्ता, यहाँ उपदेशपदीका में जो कोई नई गाथाएँ हैं वे पृथ्वीचन्द्रचरित्र का विस्तृतवर्णनात्मक गयपद्य वक्तव्य को संक्षिप्त करने के लिए बनाई गई हैं। उसी प्रकार पृथ्वीचन्द्रचरित्रगत कतिपय आलंकारिक गधसंदर्भ उपदेशपदटीका में छोड़ दिये गये हैं। उपदेशपदमूल ग्रन्थ का अनुसरण कर रची गई इस टीका में पृथ्वीचन्द्रचरित्रगत शंख-कलावती के भव में आनेवाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001370
Book TitlePuhaichandchariyam
Original Sutra AuthorShantisuri
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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