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" वजरइ तो कुमारो० (पृ० १६४ पं. १) इति गाथान्ते दण्डपालचौरमोषार्पणानुसन्धानं श्रोतृभिरपेक्षितमपि कविना केनाप्यभिप्रायेण न कृतम् , तच्च तस्यातिगम्भीरमभिप्रायमजानद्भिरितो गाथातोऽवसेयम्
कुमरेण तओ कणयाइ अप्पियं सञ्चमेव जं जस्स । रमणीओ वि हु अंतेउरम्मि गुरुवयणमओ खित्ता ॥"
अर्थात्-१६४ वें पृष्ठ की प्रथम पंक्ति में आई हुई १२३ वी गाथा के बाद दंडपाल नामक चोर के द्वारा चुराई हुई वस्तुभों का क्या हुआ? इस घटना को जानने की श्रोताओं को अपेक्षा होते हुए भी कवि ने-प्रन्थकार ने किसी कारणवशात् उसका अनुसन्धान नहीं किया । वह अनुसन्धान उस कवि के अति गम्भीर अभिप्राय को नहीं जाननेवाले व्यक्ति इस गाथा से जान लें-चोरने बिन जिन व्यक्तियों की धनसम्पत्ति लूटी थी या चुराई थी वह धनसम्पत्ति उन उन व्यक्तिओं को गिरिसुन्दर कुमार ने वापस कर दी। और बडों की आज्ञा प्राप्त कर उन सौ कुमारिकाओं को अपने अन्तःपुर में रखदी।
यहाँ संकेतकार ने ग्रन्थकार के प्रति बहुमान पूर्वक औचित्य रखकर उनकी क्षति की मोर जो सामान्य इशारा किया है उसमें संकेतकार की महानुभावता ही प्रतिबिम्बित होती है। ऐसे प्रसंगों में यह घटना हमारे लिए प्रेरणीय है। इस हेतु से ही मैंने प्रस्तुत स्थान का उल्लेख किया है।
पर्वस्रोत प्रस्तुत चरित्र के ग्यारह भवों में से प्रथम शंख-कलावती के भव की संक्षिप्त किन्तु सम्पूर्ण कथा आ० श्री हरिभद्रसूरिरचित उपदेशपद में है (देखिये उपदेशपद भा० २, गा० ७३६ से ७६८, पत्र ३४०-४१)। उसीतरह दूसरे भव से ग्यारह भवों तक के शंखराजा के समग्र भवों का सूचन भी उपदेशपद में है (देखिये वही गा० ७८८ से ७९६) । यहाँ शंखराजा के जीव के दूसरे से ग्यारहवें भव तक के भवों के नाम यानी कमलसेन से पृथ्वीचन्द्र तक के भवो के नाम, नहीं बताये हैं, किन्तु प्रत्येक भव के नगर-नगरी और मृत्यु के बाद के देवलोक के नाम बताये हैं। उसी के अनसार ही प्रस्तत पवीचन्द्र चरित्र में नगर-नगरी और देवलोक के नाम हैं। उपदेशपद में कलावती का नाम प्रथम भव में है। उसके बाद दसरे से ग्यारहवें भव तक की संक्षिप्त सूचना करने वाली गाथाओं में कलावती के जीव का उल्लेख नहीं किया। इसी वजह से उपदेशपद में सूत्ररूप से बताई गई एवं उत्तरोत्तर मौखिक या ग्रन्थस्थ (यद्यपि ऐसा कोई ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं आया फिर भी ऐसे ग्रन्थ की असंभावना नहीं कही जा सकती) रूप में विकसित पृथ्वीचन्द्रचरित्र की कथावस्तु पर से ही प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित्र की रचना हुई है, ऐसा कह सकते हैं।
प्रस्तुत चरित्रमें आनेवाली अन्तरकथाओं एवं पूर्वभव की कथाओं में से कतिपय कथाओं की संक्षिप्त कथावस्तु भी उपदेशपद में मिलती है । वह इस प्रकार है
१. प्रस्तुत ग्रन्थ के २१ वें पृष्ठ की १३ वी पंक्ति से २३ वें पृष्ठ की १४ वी पंक्ति तक में आया हुआ 'कविलसोत्तियकहाणय-कपिलश्रोत्रियकथानक' उपदेशपद भाग २, गाथा ७४८ से ७५६ (पत्र ३४०-४१) तक में है।
२. प्रस्तुतग्रन्थ के ३४ वें पृष्ठ की १९ वी पंक्ति से ५३३ पृष्ठ तक में विनयधर श्रेष्ठी की कथा है । उसमें विनयंधर श्रेष्ठी की तारा, श्री, विनया और देवी नामकी चार पत्नियों के क्रमशः पूर्वभव रतिसुन्दरी, बुद्धिसुन्दरी ऋद्धिसुन्दरी और
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