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के कुण्डल हिलने लगे, कपोल पर मोती जैसे प्रस्वेद के बून्द हो गये और उसे [ लज्जाजन्य संकोच का प्रसंग अधिक लम्बा हो जाय उसके लिए ] मतिवर्द्धन अमात्य की तरफ सूचक नजर से देखना पडा । यहां गुणसेनकुमार (राजकुमारी) को कमलसेन कुमार के प्रति तो इतना ही कहना था कि 'हे सृजन ! हम आप से पूछते हैं कि आप कहां से आये हो ? are कैसे हो ? कुशल तो हो न ? आपका अच्छी तरह से स्वागत हो ' । इतना कहने में मूल बात से अनभिज्ञ नायक के प्रथम मिलन में स्त्रीस्वभावजन्य व्याकुलता से परेशान नायिका की तुतलाती वाणी को 'सुयण ! पुच्छामो' आदि शब्द के बदले 'सु....सु.... सुयण ! पु... पुच्छामो' आदि शब्दों द्वारा प्रकट किया है ।
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उपर के एक उदाहरण परसे प्रस्तुत ग्रन्थ का रचना वैशिष्ट्य और उसकी उपयोगिता का वाचकों को किंचित् आभास हो जायगा ।
आ० श्री श्री चन्द्रसूरि ने वि० सं० १२१४ में रचे हुए प्राकृतभाषानिबद्ध 'सनत्कुमार चरित्र" के प्रारंभ में आई हुई पूर्वकविप्रशंसा में जिन लब्धप्रतिष्ठ जैन कवियों के नाम बताये हैं उनमें प्रस्तुत ग्रन्थकार म० श्री शान्तिसूरि का उल्लेख करती गाथा में इस चरित्र की सुन्दर पहचान दी है। वह इस प्रकार है
सिरिसंति सूरिवाणी विलासिणी विविहभंगभावेहिं । पुहई चंदसुरंगे रंजई हिययाई नच्चती ॥१॥
व्यर्थात्-विविध भंग तथा भावों से विलसित होने से हृदय को नचाने वाली ऐसी श्री शान्तिसूरि की वाणी पृथ्वीचन्द्र(चरित्र) रूपी सुन्दर रंग में ( हर किसी को) रंग देती है ।
तदुपरान्त यहाँ आगे निर्देशित गुरुस्तुति के तीसरे पथ में भी प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित्र का उल्लेख मिलता है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के एक स्थल पर कथा का प्रसंग टूटता है । वह इस प्रकार है—
दण्डपाल नामक चोर, लोगों को धन-दौलत के उपरान्त सौ कुमारिकाओं का अपहरण करके उन्हें पर्वत में सुरक्षित मढ़ी के तलघर मे रखता है । यह चोर किसी से भी नहीं पकडाता । अन्त में गिरिसुन्दर नामक राजकुमार उसे उसी के स्थान पर मारकर उन कुमारिकाओं का स्वामी बन जाता है। एक महिने तक यह राजकुमार वहीं रहकर उन कुमारिकाओं के साथ सुख भोगता है । उसके बाद भाई का स्नेह याद आने पर अपनी सौ पत्नियों को मढ़ी में रखकर वह अपने नगर चला जाता है । बस, उसके बाद मढ़ी में रखी हुई अपनी पत्नियों का एवं धन-दौलत का क्या होता है ? इस घटना का सम्पूर्ण कथा पूर्ण होने तक कहीं पर भी उल्लेख नहीं आता। संभव है कि शीघ्रता से एक के बाद एक बदलते हुए कथा प्रसंगों के कारण कदाचित् प्रन्थकार का अनुसन्धान छूट भी गया हो । प्रस्तुत टूटते प्रसंग का अनुसंधान १६४ वें की प्रथम पंक्ति के बाद होना चाहिये था, यह बात ' संकेत ' कार श्री रत्नप्रभसूरि के ध्यान में आई और उन्होंने प्रन्थकार के प्रति असाधारण सन्मान प्रकट करते हुए उक्त टूटते प्रसंग का निम्न गाथा से अनुसंधान कर दिया
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१- श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर (पाटन) में स्थित श्री संघ जैन ज्ञानभण्डार की ' सनत्कुमार चरित्र' की कागद पर लीखी हुई प्रति में से हूँ यह गाथा ली है । ख्यातनाम विद्वरत्न श्रद्धेय पं० श्री लालचन्दभाई गान्धी ने उनके 'ऐतिहासिक लेख संग्रह ' नामके प्रन्थ के ११५ वें पृष्ठ में सनत्कुमारचरित्र की कागद पर लिखी हुई प्रति को ताडपत्र पर लिखी हुई प्रति के रूप में बताई है । किन्तु पाटन के भण्डारों में इसकी ताडपत्रीय प्रति नहीं है। और प्राच्यविद्यामन्दिर ( वडोदरा ) के तरफ से प्रकाशित 'पत्तनस्थ जैन भाण्डागारीय न्थसूचि में भी ऐसी कोई ताडपत्रीय प्रति का उल्लेख नहीं हुआ है ।
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