SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'पउमरायकहाणय' (पृ० १७ से २१) को नहीं दिया गया किन्तु 'कपिलश्रोत्रियकथानक' उपदेशपदमूल में होने से वह दिया है । और वह भी पृथ्वीचन्द्रचरित्र में जैसा है वैसा ही यथावत् लिया है । २. प्रस्तुत ग्रन्थ के ३४ ३ पृष्ठ की ११ वी पंक्ति से ५३ वें पृष्ठ की २५ वी पंक्ति तक का ग्रन्थसंदर्भ, उपदेशपदमूल का अनुसरण करने के कारण उपदेशपदटीका में आगे-पीछे रखकर इस प्रकार अक्षरश: लेने में आया है पृथ्वीचन्द्रचरित्र के ३७ वें पृष्ठ की १९ वी पंक्ति से ५३ वें पृष्ठ की २५ वीं पंक्ति तक का अक्षरशः ग्रन्थसंदर्भ उपदेशपदटीका भा० २ के ३२१ वे पत्र से ३३५ वें पत्र की पहली पृष्टिका की १३ वीं पंक्ति तक में है । पृथ्वीचन्द्रचरित्र के ३६ वें पृष्ठ की २६ वी पंक्ति से ३७ वें पृष्ठ की १७ वी पंक्ति तक का अक्षरश: ग्रन्थसंदर्भ उपदेशपदटीका भा० २ के ३३५ वें पत्रकी पहली पृष्टिका की १३ वी पक्ति से ३३६ वे पत्रकी पहली पृष्ठिका की तीसरी पंक्ति तक में है। यहाँ केवल पृथ्वीचन्द्रचरित्र के ३६ वें पृष्ठ की २६ वी गाथा को उसके वक्तव्य को अबाधित रखकर उपदेशपदटीका में अपने कथन की संगति को साधने के लिए बदला है। पृथ्वीचन्द्रचरित्र के ३४ वें पृष्ठ की ११ वी पंक्ति से ३६ वें पृष्ठ की २५ वीं पंक्ति तक का अक्षरशः ग्रन्थसंदर्भ उपदेशपदटीका भा०२ के ३३६ वें पत्र की प्रथम पृष्ठिका की ४ थी पंक्ति से ३३८ वे पत्रकी प्रथम पृष्टिका की नौवीं पंक्ति तक में है। इसमें इतनी विशेषता है कि पृथ्वीचन्द्रचन्त्रि के ३४ वें पृष्ठ की ११ वी पंक्ति में आई हुई ५४ वीं गाथा के स्थान पर उपदेशपदटीका में नई गाथा बनाकर रखी है। प्रस्तु पृथ्वीचन्द्रचरित्रकारने राजा का नाम सिरिकेतु-श्रीकेतु बताया है जबकि उपदेशपदटीकाकार ने नई बनाई हुई गाथा में धम्मबुद्धि-धर्मबुद्धि नाम बताया है। उपर बताये गये संदर्भो में से पृथ्वीचन्द्र चरित्र के ४६ वें पृष्ठ में आई हुई ४०२, ४०३, और ४०४ गाथाएँ उपदेशपदटोका की मुद्रित आवृत्ति में नहीं हैं। यदि ये तीन गाथाएँ न हो तो कथा का सम्बन्ध टूटता है, इसलिए वें उपदेशपदटीका की प्राचीन प्रतियों में होनी ही चाहिए । मुद्रित उपदेशपदटीका भा० २ के ३२९ वें पत्रकी प्रथम पृष्ठिका को चौथी पंक्ति में आई हुई ४६ वी गाथा के बाद यहाँ बताई गई पृथ्वीचन्द्रचरित्र की तीन गाथाएं होनी चाहिए। ३. पृथ्वीचन्द्रचरित्र के ८९ वें पृष्ठ की १६ वी पक्ति से प्रारंभ होकर पृ० १०२ की १० वी पंक्ति में पूर्ण होनेवाला स्यणसिहकहाणय-रत्नशिखकथानक को उपदेशपदटीका में अक्षरशः लिया गया है, (देखिये उपदेशपद टीका भा० २, पत्र ४२१ से ४३२.। प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित्र के बाद रचे गये एतद्विषयक समस्त ग्रन्थों का इसतरह से अवलोकन किया जाय तो किसी न किसी ग्रन्थ में पृथ्वीचन्द्रचरित्र का असर होना असंभवित नहीं है। १. जैनकथासाहित्य के अभ्यासियों की जानकारी के लिये पृथ्वीचन्द्रचरित्र और उपदेशपदटीका का एक स्थान यहाँ देता हूं"पृथ्वीचन्द्रचरित्र के ६४ वे पृष्ट की २४ वीं पंक्ति से प्रारंभ होकर ७८ वे पृष्ट शिः १४ वीं पंक्ति में पूर्ण होनेवाला गद्यपद्यात्मक, 'सुयमिहुणकहाणय' शुकमिथुन कथानक उपदेशपदीका में स्वतंत्र रचनारूप पद्य में रचा गया है ( देखिये उपदेशपदटीका भा० ३, ३९८ से ४११ वें पत्र की प्रथम पृष्ठिका)। उपदेशपदमूल की ९ २ से ९८६ तक की गाथाओं में बताई गई संक्षिप्त कथावस्तु पर से पृथ्वीचन्द्रचरित्रकार और उपदेशपदटीकाकार ने रचे हुए प्रस्तुत कथानक में आए हुए नायक नायिकाओं के नाम के अतिरिक्त मातापिता, नगर-नगरी, उद्यान और मुनि आदि के नाम एक दूसरे से भिन्न २ मिलते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001370
Book TitlePuhaichandchariyam
Original Sutra AuthorShantisuri
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy