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________________ १० 1 अभ्यासी और श्रोताओं की अभिरुचि जानी जा सकती है। श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर (पाटन) में सुरक्षित श्री सागरगच्छ जैन ज्ञानभण्डार में विक्रम की १५ वीं सदी के अन्त या १६ वीं सदी के प्रारंभ में लिखाई हुई पृथ्वीचन्द्र चरित्र की एक प्रति है । उसमें आदि का मंगलाचरण और अन्त की ग्रन्थकार को प्रशस्ति तो व्अक्षरशः श्री शान्तिसूरिरचित पृथ्वीचन्द्र चरित्र की है किन्तु उसके सिवाय का प्रायः समग्र प्रन्थ संस्कृत में है । उस में भी जो स्थान-स्थान पर प्राकृत सुभाषित याते हैं वे भी शान्तिसूरिरचित पृथ्वीचन्द्र चरित्र के ही हैं। इससे समझा जा सकता है कि तथाप्रकार के अधिकारी वर्ग की प्रस्तुत चरित्र विषयक अभिरुचि को लक्ष्य में रखकर प्राकृत के अनभ्यासी अथवा अल्प अभ्यासी वर्ग के लिए किसी विद्वानने समग्र कथा को संस्कृत में बना डाला । ऐसा होने पर भी वह मूलग्रन्थ के वक्तव्य से निर्विशेष होने के कारण उसमें, आदि और अन्त का भाग मूल ग्रन्थकार का रखकर, ग्रन्थकार का गौरव ही किया है। इससे भी प्रस्तुत चरित्र की रोचकता स्पष्ट होती है । देश- नग-नगर-ऋतु-उद्यान-विरह- नायक-नायिका आदि के सम्बन्व में आनेवाले वर्णनों, अनेक स्थलों पर आनेवाले सभंग श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, गृहीतमुक्तपद आदि विविध अलंकारों, नायक नायिका और सखा सखियों के वाग्विनोदों, प्रहेलिकाओं एवं पथशैली में रचे हुए अनेक गद्यसंदर्भों की रचना इतनी प्रौढ है कि जिन्हें समझने के लिए कईबार प्राकृत भाषा के अच्छे अभ्यासिओं को भी बुद्धि कसनी पडती है । इस के अतिरिक्त शेष कथाविभाग प्राकृत भाषा के अभ्यासियों के लिए सुगम है | अतः प्राकृतभाषा के अभ्यासियों के लिए विविधता की दृष्टि से इसकी अधिक उपयोगिता है । इस ग्रन्थ की जिन हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया है उन समग्र प्रतियों में अनेक स्थलों पर मूलपाठ के अर्थ को बताने वाली टिप्पणियाँ लिखी हुई हैं जिससे मालूम होता है कि इस ग्रन्थ का अध्ययन की दृष्टि से अच्छा प्रचार हुआ होगा । ग्रन्थगत पाण्डित्यपूर्ण संदर्भों को तथा अपरिचित अथवा अल्पपरिचित देश्य शब्दों का अर्थ समझने के लिये इस चरित्र पर प्रमाण में छोटि किन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दो व्याख्याओं की रचना हुई है । वह इस प्रकार है— १. वि० सं० १२२६ में श्री कनकचन्द्र नामके जैन विद्वान मुनि द्वारा रचा हुआ ११०० श्लोकप्रमाण पृथ्वीचन्द्रचरित्र टिप्पन | २. आ० श्री रत्नप्रभसूरिकृत पृथ्वीचन्द्र चरित्रसंकेत । इन दो कृतिओं का बृहटिप्पनिका में उल्लेख हुआ है किन्तु इन दोनों में से एक की प्रति किसी भी स्थान पर नहीं मिलती है । हां, हमारे सद्भाग्य से श्री रत्नप्रभसूरिकृत पृथ्वीचन्द्रचरित्रसंकेत की एक प्रति सम्पादकनी को मिल गई है। जिसे प्रस्तुत सम्पादन में सम्पूर्ण रूप से ली है । यह 'संकेत' और उपर बताई प्रतियों में लिखि हुई शब्दार्थ दर्शक टिप्पणियों से प्रस्तुत पृथ्वीचन्द्रचरित्र के प्रायः सभी क्लिष्ट स्थानों को समझने में अनुकूलना हो गई है। इतनी जानकारी से वाचकों को ग्रन्थ की पाण्डित्यपूर्ण गम्भीर शैली का सामान्य खयाल आजायगा । यह चरित्र, एक जैन पौराणिक कथा है। इसमें कुल ग्यारह भव है । ११ वें भव में पृथ्वीचन्द्र और गुणसागर नाम के दो कथानायक है उसमें पृथ्वीचन्द्र मुख्य है । ग्यारह में भव में पृथ्वीचन्द्र गुगसागर का मोक्ष गमन होने से वह उनका अन्तिम भव है । पृथ्वीचन्द्र - गुणसागर की कथा ११ वें भव में ( पृ० २०६ से २२९ ) ही है । किन्तु १ से १० भव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001370
Book TitlePuhaichandchariyam
Original Sutra AuthorShantisuri
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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