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________________ चउपईसोमदेव सहगुरु पभणंति, इणिपरि वंछित पुण्य फलंति । भवीयण भावि सुणउ सुविचार, ए चउथउ हूअउ अधिकार ।। इत्याचार्यश्रीमहेन्द्रसूरिविरचितायां प्राकृतपयमयश्रीपृथ्वीचन्द्रकथायां ज्ञानोत्पत्ति-सिद्धिसाम्राग्यप्रापणो नाम चतुर्थः] अधिकार समाप्त[:] ||" उपर की संक्षिप्त प्रशस्ति के पद्यभाग में कर्ता का नाम सोमदेव है जब कि गद्य भाग में कर्ता का नाम महेन्द्रसूरि है। माध तीन अधिकारों के अन्त में भी उपर बताये गये चौथे अधिकार जैसा ही कर्ता का नाम सूचित करनेवाला पद्य और गय संदर्भ है। अर्थात् चारों अधिकारों के अन्त में कर्ता का नाम पद्यविभाग में सोमदेव और गद्यविभाग में महेन्द्रसरि है। इसके अतिरिक्त प्रारंभ की “पुण्यकथा सवायण भली नव-नवरसिहि रसाल । सोमदेव शासत्रा ( शास्त्रो) थकी, पभणइ गुणिहि रसाल ॥” इस छठी कड़ी में भी कनि अपना नाम सोमदेव बताया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जिस समय यह ग्रन्थ रचा गया था उस समय कर्ता का नाम सोमदेव था ही किन्तु आचार्यपद प्राप्त करने के बाद उनका नाम महेन्द्रसूरि होना चाहिए । इस कारण से सोमदेव के आचार्यपद प्राप्त करने के बाद इस रचना की जो नकलें हुई होगी उनकी गद्यपुष्पिका में सोमदेव और महेन्द्रसूरि की अभिन्नता बताने के लिए कर्ता का नाम महेन्द्रसूरि लिखाया होगा। इस प्रकार के एक ही ग्रन्थकार के दो नाम के उदाहरण जैनग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। इस ग्रन्थ की रचना मेडता(राजस्थान) . ३. वि० सं० १५५७ में रचा हुमा संस्कृतभाषानिबद्ध तपगच्छीय मुनि श्री लब्धिसागरकृत पृथ्वीचन्द्रचरित्र । यह चरित्र भी श्री माणिक्यसुन्दरचित पृथ्वीचन्द्र चरित्र की कथावस्तु पर से रचा हुआ है, और वह वि० सं० १९७५ में पण्डित श्रावक श्री हीरालाल हंसराज द्वारा मुद्रित हुआ है। श्री शान्तिसरिकृत पुहइचंदचरिय गद्य-पद्यात्मक प्राकृतभाषानिबद्ध यह पृथ्वीचन्द्रचरित्र वीर सं. १६३१ (वि. सं. ११६१) में रचा हुआ है। इसकी रचनाशैली प्रासादिक और प्रौढ है। तत्कालीन जनरुचि का अनुसरण करके भिन्न भिन्न रुचिवाले वाचक और श्रोताओं के रस को सुरक्षित रखनेवाले ग्रन्थगत प्रसंगनिरूपण और विविध वर्णनों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि समग्र प्राकृत कथा-चरित्रों में इस रचना का अपना विशेष प्राधान्य है। इस चरित्र की रचना के बाद वाचन-अभ्यास-व्याख्यान आदि की दृष्टि से इसका प्रचार-प्रसार भी विद्वानों और श्रोतामों में खूब हुआ। इस ग्रन्थ की रचना के बाद विक्रम की १९ वीं सदी की अवधि में बीच बीच में जैन विद्वानों ने प्रस्तुत ग्रन्थ की कथावस्तु को मुख्य रखकर संस्कृत और गुजराती भाषा में अन्यान्य चरित्रों की रचना की हे । इसीसे ही एतद् विषय के १-इनके उदाहरण इस प्रकार है-श्री पार्श्वदेवगणि और श्री श्रीचन्द्रसूरि के ऐक्य के लिए देखिये प्राकृतग्रन्थपरिषद् के १० वें प्रन्धरूप से प्रकाशित 'नन्द्रिसूत्रम्-हरिभद्रसूरिकृतवृत्तिसहित' की प्रस्तावना पृ. ५, तथा श्री देवेन्द्र(मुनि) और श्री नेमिचन्द्र सरि के ऐक्य के लिए देखिये प्राकृतप्रन्थपरिषद् के पांचवें ग्रन्थाङ्क रूप से प्रकाशित 'आख्यानकमणिकोश' को प्रस्तावना पृ. ७. तथा श्री गणचन्द्रगणि और श्री देवभवसूरि के ऐक्य के लिए देखिये श्री मात्मानन्द जैन ग्रन्थमाला(भावनगर) के ९१ प्रन्माइ कप से प्रकाशित 'कहारयणकोसो' को प्रस्तावना का पत्र ६ से ८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001370
Book TitlePuhaichandchariyam
Original Sutra AuthorShantisuri
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages323
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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