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________________ स्वभावोसे हटाकर एक स्वभावमें स्थापित करता हैं वह नय हैं अर्थात् अनेक गुण पर्यायात्मक द्रव्यको एक धर्मकी मुख्यतासे निश्चय करनेवाला नय है। मोक्ष मार्ग की साधना के लिये प्रमाण नय का सम्यक् बोध होना अत्यावश्यक हैं । इसी कारणसे आचार्य गद्धपिच्छने तत्त्वार्ध सूत्र में "प्रमाण और नयोसे सम्यकदर्शन व जीवादिपदार्थोका अधिगम होता है।' ऐसा मुख्यरूपसे निर्दिष्ट किया है। नय ज्ञान विना वस्तु के स्वरूप का यथार्थ बोध न होनेसे साधक का जीवन एकांगी निर्णय होनेसे सदा उलझन भरा बना रहता हैं और मिथ्यात्व न टूटनेसे विवाद की आशंका बनी रहती हैं १. जीवनमें यदि व्यवहार नय के आश्रय की मुख्यता बनी रहती है सो बाहिरी क्रियाकाण्ड वेष तथा परवस्तुके त्यागादिक को धर्म मानकर आत्मा के स्वरूप की ओर लक्ष न होनेसे यथार्थ सुखसे वंचित रहता हैं क्योंकि जीवोंके जो अध्यवसान होता है वह वस्तुको अवलंबन कर होता हैं तथापि वस्तुसे बन्ध नही होता हैं अध्यवसानसे ही बन्ध होता हैं । अध्यवसानही बन्ध का कारण है बाह्य वस्तु नही, क्योंकि बन्धका कारण जो अध्यवसान हैं उसके कारणत्वसेही बाह्य वस्तु की चरितार्थता हैं। अध्यवसान का निषेध करने के लिये बाह्य वस्तु का निषेध किया जाता हैं । अध्यावसान को बाह्य वस्तु आश्रय भूत है; बाह्य वस्तुका आश्रय किये बिना अध्यवसान उत्पन्न नही होता है। इस प्रकार बन्ध के - ' - . १. प्रमाण नयैरधिगम: तत्वार्थ सूत्र। ६ । २. बहत्थं पड़च्च ज पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं । णय वत्धुदोदि बंधी अज्झवसाण बधोधि ।। समर सारगाधां (तथा उसकी टीका) २६५ ।। (३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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