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कारण अपने अध्यवसानरूप रागादिक भावो के त्यागने की
ओर तो लक्ष न हो और जो बाह्य वस्तु त्याग को धर्म माने उसीमे संतुष्ठ बना रहे उसके जीवन में मात्र व्यवहार नय की मुख्यता होनेसे निश्चय रूप स्वरूप की प्राप्ति करानेवाला स्वानुभव प्राप्त होना असंभव हो, ऐसे जीव को आगम में व्यवहाराभासी मिथ्यादष्टि कहा है।
२) इसी प्रकार कोई महानुभाव निश्चय नय की मुख्यता करके बाह्य वस्तु का त्याग और अपने परिणामों के निमित्त नैमित्तिक संबंध का ज्ञान न होनेसे व्यवहाराश्रित व्रत क्रिया उपवासादि क्रियाओंको छोडकर अपने को सिद्ध समान शुद्धमानकर स्वेच्छाचारी हो जाते है वे भी चरणानुयोग पद्धतिका ज्ञान होनेसे बाहयत्याग तप आदि क्रियाओं और रागादिक के अभाव का अन्वय होने पर भी इन को निरर्थक मान कर इन्हे न पालन करते हुए धर्मानुकूल क्रियाओंके बिना स्वच्छन्द और निरुद्यमी होकर मिथ्यावृष्टि ही बने रहते हैं और बन्ध के कारण अपने रागादि परिणामों की ओर ध्यान न होनेसे वे संसार के पात्र होते हैं। ऐसे जीवों को आगम में निश्चयाभासी कहा है। आ. अमत चन्द्र स्वामी कहते हैं कि ऊपर कहे हुए व्यवहारा भासी और ये निश्चया भासी दोनों संसार मे डुबे हैं।'
३) इसी प्रकार कोई सज्जन उपचरित असद्भूतनय की मुख्यता करके उपादान को अनदेखाकर निमित्ताधीन दृष्टिसे
१. मग्नाः कर्म नयावलंबन परा ज्ञानं न जानन्ति ये। माना ज्ञाननयंषि
णोऽपि यदतिस्वच्छन्द मंदोद्यमा:। समयसार कलश । १११ ॥
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