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________________ प्रमाण अधिकार १ व्यंजनावग्रह २ अर्थावग्रह १ व्यंजनावग्रह स्पर्शन, रसन, घ्राण, कर्णेद्रिय द्वारा जो स्पृष्ट पदार्थोका सामान्य अस्पष्ट प्रतिभास होता है उसे व्यंज - नावग्रह कहते है । यह व्यंजनावग्रह चक्षु तथा मनके विना शेषचार इंद्रियोंसे होता है । ( ३५ ) अर्थावग्रह - पदार्थ विशेषकी अस्तिरूप प्रथम जो ज्ञान उसको अर्थावग्रह कहते है । जैसे पहले स्पर्शनेंद्रिय द्वारा किसी पदार्थ के अस्तित्व मात्र का सामान्य सत्ता प्रतिभास लक्षण दर्शन हुआ । पश्चात् पदार्थके विशेष सत्ता मृदुस्पर्श का प्रतिभास व्यंजनावग्रह हुआ । पश्चात् मृदुस्पर्शवाला रस्सी समान गोल लंबायमान पदार्थ विशेषका प्रथम ग्रहण हुआ । चार इंद्रियों द्वारा प्रथम सामान्य प्रतिभास लक्षण दर्शन हुये विना व्यंजनावग्रह होता नहीं । व्यंजनावग्रह हुये विना विना अर्थावग्रह होता नहीं । अर्थावग्रह होनेपर ही ईहा अव्यय धारणा उत्तरोत्तर ज्ञान क्रम पूर्वक होते है । चक्षु और मनके द्वारा सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन होनेपर अर्थावग्रह होता है । चक्षु और मन के द्वारा व्यंजनावग्रह अस्पष्ट प्रतिभास होता नहीं । ईहा - अर्थावग्रह होनेपर यह अमुक पदार्थ होना चाहिये इस प्रकार जिज्ञासा रूप ज्ञान उसको ईहा कहते है । ( संशय दूर करनेवाला ज्ञान ईहा है । ३ ) अवाय - ईहा ज्ञान होनेपर यह दोरी ही है सर्प नहीं इस प्रकार निर्णयात्मक पदार्थ विशेष का ज्ञान अवाय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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