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________________ प्रमाण अधिकार ( ३३) सम्यग्ज्ञानको प्रमाण कहते है । वस्तूके संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय इन तीन दोष विरहित समीचीन यथार्थ ज्ञानको सम्यग्ज्ञान प्रमाण ज्ञान कहते है। । सकलादेशग्राहिज्ञानं प्रमाणं) वस्तूके सामान्य विशेष आदि परस्पर विरोधी सकल अंशोंको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको प्रमाण कहते है। तद द्वधा प्रत्यक्षतरभेदात् ॥ ३५ ॥ वह प्रमाणज्ञान दो प्रकारका है। १ प्रत्यक्ष २ परोक्ष प्रत्यक्षके दो भेद है। १ विकल प्रत्यक्ष २ सकल प्रत्यक्ष अवधि-मनःपर्ययौ विकलप्रत्यक्षौ । ३६। अवधिज्ञान और मनः पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष ( देशप्रत्यक्ष ) है। केवलं सकल प्रत्यक्षं ॥ ३७ ॥ केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। मति-श्रुते परोक्षे ।। ३८ ॥ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान है। विशेषार्थ- द्रव्य, गुण, पर्याय स्वभाव इन सबको जाननेका उपाय सम्यग्ज्ञान है। प्रमाण और नयज्ञान है । सकलादेश ग्राहि ज्ञानं प्रमाणं । विकलादेश ग्राहि ज्ञानं नयः ॥ वस्तूके सामान्य विशेषरूप परस्पर विरोधी संपूर्ण अंशोंको ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाणज्ञान कहलाता है। तथा वस्तूके एक एक अंशको मुख्यगौणरूप निक्षेप लक्षण बिवक्षाको अभि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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