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________________ ( ३० ) आलाप पद्धति जीव कथंचित् चेतन-अचेतनात्मक है । ज्ञानदर्शन स्वभासे चेतनात्मक तथा प्रमेयत्वादि धर्मोसे कथंचित् अचेतनात्मक है । तथा पुद्गल द्रव्यों मे भी इसी प्रकार अचेतन, मूर्तत्वस्वभाव के साथ चेतनत्व तथा अमूर्तत्व विभाव भाव कहे गये है । का वि अपुव्वा दीसदि पुग्गलदव्वस्स एदिसो सत्ती केवलणाण सहावो विणासिदो जाई जीवम्स || / कार्तिकेय अणुप्रेक्ष २११ पुद्गल द्रव्यमे भी ऐसी अपूर्व शक्ति दिखाई देती है कि, जीवके केवलज्ञान स्वभावको आवरण डालनेवाला केवलज्ञानावरण कर्म कहा गया है । असद्भूत व्यवहारेण कर्म नोकर्म णोरपि चेतनस्वभावः ॥ ( आलाप पद्धति सूत्र १६० ) जीवके पांच भावोंमे औदयिक भावमे अज्ञान भावको जीवका स्वतत्व कहा है । क्योंकि जीवका अज्ञानभाव ज्ञानावरण कर्मके उदयमे होता है । जीवस्य असद्भूत व्यवहारेण अचेतन स्वभाव: ( आलाप पद्धति सूत्र १६२ ) इस प्रकार असद्भूत व्यवहार नयसे जीवमे अचेतनस्वभाव कहा गया है । जीवस्य अपि असद्भूत व्यवहारेण मूर्तस्वभावः ( आलाप पद्धति १६४ ) असद्भूत व्यवहार नयसे जीवको कमैबद्ध अवस्थामे मूर्त स्वभाव कहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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