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________________ स्वभाव अधिकार ( २९) १४ जीवसमास रूप अवस्थाओं को अचेतन भाव और मूर्त स्वभाव कहे गये है। उसी प्रकार पुद्गलमें भी एक्कीस भाव कहे इससे स्पष्ट होता है कि कर्मरूप पुद्गल द्रव्यमें जीवके चेतन गुणोंका घात करने की शक्ति उसको उपचारसे चेतन तथा अमूर्त कहा है। ( समान शील व्यसनेष सख्यं ) इसी नीति नियमसे कर्मके साथ संबंध करनेके लिये जीवको कथंचित् अचेतन मर्त बनना पडता है । तथा कर्मको कथंचित् चेतन तथा अमूर्त बनना पडता है। उसके विना जीव और कर्मका संश्लेष बन नही सकता। प्रश्न- जीवमे चेतनत्व तथा अमूर्तत्व स्वभाव होनेपर अचेतनत्व तथा मर्तत्व कैसे संभव हो सकता है ? तथा पुद्गल द्रव्यमे कर्ममे अचेतनत्व, मूर्तत्व स्वभाव होनेपर चेतनत्व, अमर्तत्व स्वभाव कैसे संभव हो सकते है ? उत्तर- जिसकारण जीव और कर्मरूप पुद्गल द्रव्यका परस्पर संश्लेष संबंध होता है वह समानशील हुये विना बन नही सकता। 'समानशील व्यसनेषु सख्यं ' ऐसा नीति नियम है। आगममे जीवके गुणस्थानादि भावोंके अचेतनस्वभाव कहा है । इसलिये सात तत्वोंमे प्रमुखतासे जीवके अशुद्ध विभाव परिणमनको अजीवतत्व मूर्त कहा है। ( बंधादो मुत्ति ) तथा जीवमे ज्ञान दर्शनस्वभावको चेतन स्वभाव कहा है। अन्य अस्तित्वादि सामान्यधर्मको ज्ञानरूपन होनेसे अचेतन कहा हैं। प्रमेयत्वादिक धर्मे: अचिदात्मा चिदात्मकः । ज्ञानदर्शनतस्तत स्यात् चेतनाचेतनात्मकः ॥ (स्वरूपसंबोधन३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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