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________________ नय कहते है । प्रमाण के द्वारा वस्तु के सब अंशो को ग्रहण करके ज्ञाता पुरुष अपने अभिप्रायके अनुसार उनमें से किसी एक धर्म की मुख्यतासे वस्तु को ग्रहण करता है वही नय है। इसी आधार से ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा है । श्रुत ज्ञान के भेद नय है । इस प्रकार जो नाना स्वभावों से वस्तु को पृथक कर एक स्वभाव में स्थापित कर देता है वह नय है । उसके भी दो भेद हैंशब्दात्मक सविकल्प और ज्ञानात्मक निर्विकल्प | १४ ) निक्षेप व्युत्पत्ति प्रमाण नययोनिक्षेपणं- आरोपण निक्षेप: इस संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार जो प्रमाण नय द्वारा वस्तुको भेद विवेक्षा में निक्षेपण करता या आरोपण करता है वह निक्षेप है । बाह्यार्थ के विकल्पों की प्ररूपणा अथवा अनधिगत पदार्थ के निराकरण द्वारा अधिगत अर्थ की प्ररूपणा का नाम निक्षेप है । प्ररूपणा के लिये निक्षेपोंका प्रयोग अनिवार्य है। उसके विना प्ररूपणा बन नही सकती । निक्षेप अनेक प्रकारके हैं क्योंकि जहां बहुत ज्ञातव्यहो वहां नियमसे अपरिमित नयों का प्रयोग करना चाहिये । और जहां बहुत को नही जानना हो वहां नामादि चार निक्षेपों का प्रयोग करना चाहिये । ' १५) नय के भेदों की व्युत्पत्ति इस अधिकार में विस्तार से द्रव्यार्थिक आदि नयों तथा उनके भेद उपभेदों को व्याकरण के नियम के अनुसार किस नय का क्या प्रयोजन हैं इस अभिप्राय को प्रकट करते व्युत्पत्ति की गई १. धवला पु८ पृ. १४१ Jain Education International (२६) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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