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________________ हैं। जैसे द्रव्य ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन हैं वह द्रव्यार्थिक नय हैं शुद्ध द्रव्य ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन हैं वह शुद्ध द्रव्याथिक नय हैं, इसी प्रकार अशुद्ध द्रव्याथिक नय, अन्वय द्रव्याथिक नय स्वद्रव्यादिग्राहक, परद्रव्यादिग्राहक, परमभाव ग्राहक द्रव्याथिक नय की व्युत्पत्ति की गई। पर्याय हो जिसका प्रयोजन है वह पर्यायाथिक नय हैं। द्रव्याथिक नय को तरह यहां भी पर्यायाथिक नय के भेद अनादि द्रव्य पर्यायाथिक सादि द्रव्यपर्यायाथिक शुद्ध पर्यायाथिक, अशुद्ध पर्यायाथिक इन को व्युत्पत्ति इसी के अन्तर्गत की गई है। जो एक को नही जाना उसे निगम कहते हैं। निगम का अर्थ है सकल्प । उसमें जो हो उसे नैगम नय कहते हैं । अर्थात् जो संकल्प मात्र को ग्रहण करना है । जो अभेद रूप से समस्त वस्तुओंको संग्रहकर ग्रहण करता है उसे संग्रह नय. कहते हैं । इनके समान ही यही व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत नयों को व्युत्पत्ति से विवेचित किया है। इसके अनन्तर नयों के भेदों का निर्देशकर उनकी विधिवत् व्युत्पत्ति प्ररूपित की है- शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चय नय नयके भेद है । अभेद और अनुपचार से वस्तुका निश्चय करना निश्चय नय है । और भेद तथा उपचारसे वस्तुका व्यवहार करना व्यवहार नय हैं । गुण गुणी मे भेद करना सद्भूत (२७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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